Atmadharma magazine - Ank 110
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: २४ : आत्मधर्म : ११०
हशे ने?–तो कहे छे के ना; शुद्ध आत्माने जाण्या पहेलांं के पछी क्यारेय पण बहारनी प्रवृत्ति तो आत्मा
करी शकतो ज नथी; जीव बहु तो पोतामां राग–द्वेष–मोहनी प्रवृत्ति करे, ते अधर्मी जीवनी प्रवृत्ति छे.
मारो शुद्ध आत्मा धु्रव छे ते ज मने शरणभूत छे, ए सिवाय समस्त पर द्रव्यनो संयोग अधु्रव छे, ते
मने शरणभूत नथी–एम सत्समागमे पात्रताथी जाणीने, पोताना शुद्ध आत्मामां प्रवृत्ति करवी ते धर्म
छे, अने ए ज धर्मी जीवनी प्रवृत्ति छे.
शरीर–मन–वाणी वगेरे जडनी अवस्थाथी जुदो ने पुण्य–पापनी लागणीथी पण पार एवो धु्रव
ज्ञानानंदस्वभावी मारो आत्मा छे ते ज मने शरणरूप छे. कोई पण संयोग मने शरणरूप नथी; अने ते
संयोगना लक्षे पर्यायमां जे क्षणिक शुभ–अशुभ परिणाम थाय छे ते विकारी परिणाम वडे बहारमां कांई
थतुं नथी तेम ज ते परिणाम वडे अंर्तस्वभावमां पण वळी शकातुं नथी माटे ते विकारी परिणामो
निरर्थक छे, ते कोई मने शरणभूत नथी; मारो चैतन्यस्वभाव ज धु्रव होवाथी मने शरणभूत छे.–आम
जेणे पोताना शुद्ध आत्माना श्रद्धाज्ञान कर्यां तेने तेमां ज प्रवृत्ति द्वारा शुद्ध–आत्मपणुं होय छे; आ
सिवाय बीजा कोई कारणे शुद्ध–आत्मपणुं थतु नथी. शुद्ध आत्मस्वभावने जाण्या पछी कोई बीजी
प्रवृत्तिथी शुद्धता थती नथी परंतु पछी पण ते शुद्धात्मामां ज प्रवृत्तिथी आत्माने शुद्धता थाय छे.
बहारनी प्रवृत्ति तो आत्मा करी शकतो ज नथी, एटले पहेलांं के पछी ते करवानो प्रश्न ज रहेतो नथी.
परथी तो आत्मा त्रणेकाळे जुदो छे. परथी भिन्न शुद्ध आत्माने जाण्या पछी तेमां ज प्रवृत्तिथी मोहनो
नाश थाय छे, मोहना नाश माटे आथी जुदो कोई उपाय नथी.
घणा पूछे छे के आत्मानी समजण पछी तो आ देहादिनी क्रिया करवानुं आवशे ने? पण ज्ञानी
कहे छे के अरे भाई! आत्मा जे करी शकतो होय तेमां ‘पहेलां के पछी’ करवानो प्रश्न ऊठे ने? देहादिनी
क्रिया–के जे आत्मा कदी करी शकतो ज नथी तेमां पहेलांं के पछी करवानो प्रश्न ज क्यां रह्यो? जेम कोई
पूछे के ससलानां शींगडा हमणां कापवा के पछी? –पण ससलानां शींगडां छे ज नहि तो पछी तेमां
‘हमणां के पछी’ कापवानो प्रश्न ज क्यांथी होय? तेम कोई कहे : शरीर वगेरेनी क्रिया करवानुं पछी तो
आवशे ने? तो ज्ञानी तेने कहे छे के अरे भाई! तुं एटलुं तो समज के तुं आत्मा छे ने आ शरीर तो
जड छे, ते जडनी क्रिया तुं करी शकतो नथी. जो आटलुं समज तो ‘शरीरनी क्रिया क्यारे करवी’ एवो
प्रश्न ज ऊठशे नहि. पहेलांं के पछी जे करी शकातुं होय ते करवानुं आवे, के जे न करी शकातुं होय ते
करवानुं आवे? पहेलांं अज्ञानभाव वखते पण जीव मात्र विकारने ज करे छे, शरीरनी क्रियाने य तो
तेणे कदी करी नथी. अने समज्या पछी पण आत्मामां एकाग्रतारूपी क्रिया ज करवानुं आवे छे. पोताना
शुद्ध ध्रुवस्वभावने जाणीने तेमां ज प्रवृत्तिथी धर्म थाय छे. वच्चे पूजा–भक्ति–दया–दान–यात्रा–
स्वाध्याय–व्रत वगेरे शुभभावरूप प्रवृत्ति आवे पण ते प्रवृत्तिथी धर्म नथी. साक्षात् सर्वज्ञदेव तरफनो
राग ते पण पुण्यप्रवृत्ति छे, धर्मप्रवृत्ति नथी. वच्चे धर्मीने ते शुभराग भले हो, पण ते रागनी प्रवृत्ति
वडे कल्याण थतुं नथी, कल्याण तो शुद्ध आत्मामां प्रवृत्तिथी ज थाय छे. सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान अने
सम्यक्चारित्र ए त्रणे य शुद्ध आत्मामां प्रवृत्तिथी ज थाय छे.
कोई निमित्तना अवलंबन द्वारा, विकार द्वारा के व्ययहारनी शुभप्रवृत्ति द्वारा धर्म थतो नथी पण
शुद्धआत्मामां प्रवृत्ति द्वारा ज धर्म थाय छे. धर्मी जीव क्षणे क्षणे आवी प्रवृत्ति करे छे; धर्मी जीवनी आ
प्रवृत्ति अज्ञानीने बहारनी आंखेथी देखाय तेम नथी. अने अज्ञानी जीव क्षणे क्षणे बहारनी प्रवृत्तिनो
अहंकारभाव करीने पोतामां अधर्मनी प्रवृत्ति करे छे. धर्म ते कोई बाह्य प्रवृत्तिथी मळती चीज नथी पण
आत्मानी स्वतंत्र स्वालंबी दशा छे, ते आत्मामां ज प्रवृत्तिथी थाय छे.
पहेलांं मार्ग नक्की करवो जोईए के धर्मनी रीत शुं छे?–क्ये ठेकाणे एकाग्र थवाथी मारुं हित
थाय? मारा शुद्ध चैतन्यघन स्वभावने धु्रव जाणीने तेमां एकाग्रता करुं ते ज मारो धर्म छे, बीजी प्रवृत्ति
वच्चे आवे तो भले हो, पण ते प्रवृत्तिमां मारो धर्म नथी. संयोगो अने