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पराश्रित विकारी भाव छे तेना द्वारा पण मारुं कल्याण नथी. संयोगोथी अने विकारथी भिन्न हुं ज्ञातास्वभावी
धु्रव छुं, मारा धु्रवस्वभावना आश्रये ज मारुं कल्याण छे–आम जेणे ज्ञान द्वारा निश्चय कर्यो तेने तेमां ज
प्रवृत्तिथी कल्याण थाय छे. आवी धर्मनी रीत छे.
स्वसन्मुख थईने ‘हुं ज्ञान छुं’ एवो निर्णय करवो ते अनंतकाळे नहि करेल अपूर्व चीज छे. ‘हुं ज्ञान छुं’ एम
समयसारनी पंदरमी गाथामां कहे छे के जे आ अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष अने असंयुक्त एवा
पांच भावोस्वरूप आत्मानी अनुभूति छे ते निश्चयथी समस्त जिनशासननी अनुभूति छे. कोई पूछे के पहेलांं
अमारे शुं करवुं? तो कहे छे के ‘हुं ज्ञानस्वरूप छुं’–एवो अंतरमां निर्णय करीने तेनो अनुभव करवो. पात्र
थईने अंतरमां आ वात समजवा मागे तो आठ वर्षनी बालिका पण क्षणमां समजी जाय छे, अने न समजवा
मागे तो द्रव्यलिंगी थईने अबजो वर्ष सुधी व्यवहारचारित्र पाळनारा पण नथी समजता. अंतरमां शुद्ध
आत्मतत्त्व सिवाय बीजे रुचि पडी होय तो आ वात क्यांथी समजाय? अंतरमां जेने शुद्धआत्मा समजवानी
रुचि थाय ते आ वात बराबर समजी शके; अने जे जीव आ वात समजे तेनो ज्ञान अने वैराग्य जुदी जातनो
होय छे.
छे. ज्यां शुद्धात्माने जाण्यो त्यां ज्ञान ते तरफ वळी गयुं–एटले शुद्धात्मामां प्रवृत्ति थई ज गई. कोई एम कहे के
थती नथी’–तो एम कहेनारे शुद्ध आत्माने खरेखर जाण्यो ज नथी. शुद्ध आत्माना अपार महिमाने जाणे अने
तेमां श्रद्धा–ज्ञाननी प्रवृत्ति न थाय–एम बने ज नहि. अहीं पहेलांं तो सम्यग्दर्शननी प्रवृत्तिनी वात छे, ते ज
पहेलो धर्म छे. आ सिवाय, मिथ्याद्रष्टिओ बीजी रीते धर्म मनावे छे ते धर्मनी रीत नथी.
शुभभावने कारणे थती नथी, तेम ज बहारमां जिनमंदिर वगेरे थवानुं हतुं तेने कारणे जीवने शुभराग थयो
छे–एम पण नथी. दरेक तत्त्व भिन्न भिन्न स्वतंत्र छे. बहारनी जे क्रिया थई तेनाथी तो जीवने धर्म नथी ने
शुभभावथी पण धर्म नथी; संयोगथी अने रागथी रहित एवा आत्मस्वभावने समजे तो पोताना आत्मामां
धर्मनी प्रतिष्ठा थाय, अने तेणे पोताना आत्मामां खरेखर भगवानने स्थाप्या. ‘सिद्धसमान सदा पद मेरो’
एम पोताना आत्मामां जेणे सिद्धपणुं स्थाप्युं तेणे पोताना आत्मामां भगवानने पधराव्या, अने ते जीव
भगवाननो नंदन थयो.
आत्मानुं अंतरमां भान छे, ‘आ शुभ वडे हुं बहारनुं काम करुं छुं’ –एम स्वप्ने पण ते मानता नथी तेम ज ते
शुभरागथी आत्माने धर्म थाय छे एम पण मानता नथी; शुभविकल्प वखते पण अंदरनी सम्यक्श्रद्धाना जोरे
शुद्ध आत्मा तरफनुं वलण रहे छे, तेनाथी ज धर्मीने धर्म थाय छे. ए रीते धर्मनो आधार तो आत्मा ज छे.
लोको बाह्य प्रवृत्तिना आधारे धर्म मानीने भटकी रह्या छे. पण हजी आत्मा पोताना स्वभावथी शुभरागनो य
कर्ता नथी तो पछी बहारमां जडनी प्रवृत्तिने आत्मा करे अने तेनाथी आत्माने धर्म थाय–ए वात क्यां रही? ?
–ते तो मात्र अज्ञानी जीवोनी भ्रमणा छे.