Atmadharma magazine - Ank 112
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: महा : २००९ : आत्मधर्म–११२ : ७७ :
बुद्धिवाळा विरोधक मिथ्याद्रष्टि जीवोनी दशा केवी होय–ए बधुं आमां समाई जाय छे. आत्मानी एक
पण शक्तिनुं ज्ञान करतां आखा द्रव्यनुं, गुणोनुं, पर्यायनुं, विपरीतदशानुं, सम्यक्दशानुं, साधकनुं ने
सिद्धनुं–एम बधानुं ज्ञान थई जाय छे. चैतन्यनो बेहद विलास प्रगट करीने अतीन्द्रिय आनंदनी मोज
माणे एवो अनादिअनंत गुण आत्मामां छे. अविनाशी चैतन्यतत्त्वनो विकास कोना आश्रये प्रगटे? शुं
नाश थवायोग्य एवा शुभ विकल्परूप व्यवहारना आश्रये, संयोगना आश्रये के क्षणिक पर्यायना आश्रये
अविनाशी चैतन्यतत्त्वनो विकास थाय? पोतानो जे अमर्यादित स्वभाव त्रिकाळ छे तेनो विश्वास करतां
चैतन्यनो विकास परिपूर्ण खीली जाय छे. जेनो आश्रय करतां क्षणमात्रमां संकोच टळीने अमर्यादित
चैतन्यशक्तिनो विकास थई जाय–एवो आ आत्मानो स्वभाव छे. आवा आत्मानो निर्णय करीने तेनो
आश्रय करवो ते ज धर्म छे. जुओ, आमां पोताना आत्मा सिवाय देव–गुरु–शास्त्रना आश्रयनी वात न
करी, भक्तिना शुभरागथी धर्म थाय ए वात पण ऊडी गई, व्यवहारना अवलंबनना भुक्का ऊडी गया,
निश्चय आत्मस्वभावनी द्रष्टिमां व्यवहारना अवलंबननो अभाव छे, तो पछी निमित्त अने संयोग तो
क्यांय दूर रह्या! सम्मेदशिखर के महाविदेहक्षेत्र वगेरे बहारना क्षेत्रमां जाउं तो मारा चैतन्यनो विकास
थाय–ए वात न रही, परंतु अंतरनी चैतन्यसत्तानो आश्रय करतां बेहद ज्ञानसामर्थ्य खीली जाय छे, ते
ज्ञानमां सम्मेदशिखर अने महाविदेहक्षेत्र वगेरे बधुं जणाई जाय छे. आखी आत्मवस्तु ज
अंतर्मुखद्रष्टिनो विषय छे. जैनशासननुं एक पण रहस्य अंतरनी द्रष्टि विना समजाय तेवुं नथी.
जेम कोई शेठ होय, तेनुं मकान बहारथी जुओ तो झुंपडा जेवुं लागतुं होय, पण अंदर जईने
जुओ तो घणी विशाळता होय ने अबजोनी किंमतनुं झवेरात पड्युं होय. तेम शेठ एटले के बधा
पदार्थोमां श्रेष्ठ एवो चैतन्यमूर्ति आत्मा असंख्यप्रदेशी क्षेत्रवाळो होवा छतां तेनामां अनंत
स्वभावसामर्थ्य भर्युं छे. बहारथी शरीर के पर्यायने जुओ तो ओरडी जेवुं नानुं लागे पण अंतरमां
द्रव्यने जोतां तेमां अनंती ताकातनो भंडार भर्यो छे. जेम सारो उदार शेठ होय ते दुष्काळ वखते फंडमां
बीजानी मदद न मागे पण बीजानी मदद वगर पोते एकलो ज पूरुं करे; तेम जगतनो राजा
चैतन्यभगवान आत्मा पोते अनंत सामर्थ्यनो भंडार छे, ते एवो उदार छे के पोतामां संसारपर्यायरूपी
दुष्काळ टाळीने अनंत आनंदमय मोक्षदशा प्रगट करवा माटे कोई परनी मदद ल्ये तेवो नथी, पोते
एकलो पोताना स्वभावनी ताकातथी पर्यायनो संकोच टाळीने विकास करीने मोक्षदशा प्रगट करे छे.
असंकुचितविकासत्व शक्तिवाळा भगवान आत्मानो आश्रय करतां पर्यायमां पूर्ण विकास प्रगटी जाय छे.
पहेलांं आवी श्रद्धा पण जे न करे तेनामां चारित्रदशानी के मुनिपणानी लायकात होय ज नहि.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्ग तथा मुनिपणुं तो आत्मस्वभावना ज आश्रये छे;
मोक्षमार्गमां निजस्वभावनी ज अपेक्षा छे ने परनी–निमित्तोनी उपेक्षा छे; निश्चयस्वभावनो ज आश्रय
छे ने व्यवहारनी उपेक्षा छे; अभेद द्रव्यनी ज प्रधानता छे ने पर्यायनी गौणता छे. –आवा मोक्षमार्गने
साधतां साधकने पर्यायमांथी संकोच टळीने पूर्ण विकास प्रगटी जाय छे. चैतन्यस्वभावमां एवां अक्षय
निधान भर्यां छे के तेमांथी गमे तेटलुं काढ्या ज करो तोपण खूटे नहि. आत्मा कहे छे के मारामां
परिपूर्ण निधान भर्यां छे, जे जोईए ते लई जाओ, जेवडी दशा जोईए तेवडी प्रगट करो, मारामां कदी
संकोच पडे तेम नथी; परमअवगाढ श्रद्धा, दिव्य केवळज्ञान, अनंत अतीन्द्रिय आनंद अने अनंत वीर्य–
एवा अनंत स्वचतुष्टयरूप अमर्यादितदशा मारामांथी प्रगट करो. पण ते कई रीते प्रगटे? के अंतर्मुख
अवलोकन वडे ज ते प्रगटे छे, बहारमां अवलोकनथी ते प्रगटता नथी. अंतर्मुख थईने स्वभावशक्तिनी
प्रतीत करतां तेना अवलंबने पर्यायमांथी क्रमेक्रमे संकोच टळीने विकास थतो जाय छे ने अल्पकाळमां
पूर्णता प्रगटी जाय छे. ते पूर्णता प्रगट्या पछी तेमां फरीने कदी संकोच थतो नथी. आवी तेरमी शक्तिनी
प्रतीति ते तेरमा गुणस्थाननुं कारण छे.
–तेरमी असंकुचितविकासत्व शक्तिनुं वर्णन अहीं पूरुं थयुं.