लाभ थाय नहि. त्रिकाळी चैतन्यस्वभावनो पिंड आत्मा छे तेनी सन्मुखताथी ज आत्मानो लाभ थाय छे तथा
संकोच टळीने विकास प्रगटे छे. मारो त्रिकाळी स्वभाव शुं छे अने परिणमनमां संकोच केम छे–ते वात समज्या
विना कोनी सामे जोईने पर्यायनो विकास करशे? मंद–कषाय थयो तेने ज चैतन्यनो विकास जे जीव मानी बेठो
होय तेने कषायथी भिन्न चैतन्यस्वभावनुं भान नथी एटले तेने चैतन्यनो विलास प्रगटे नहि. मूळ भूल शुं
छे अने ते भूल वगरनो स्वभाव शुं छे–ते जाणे नहि ने बफममां–भ्रमणामां रही जाय तेने चैतन्यनो विकास
थतो नथी; तेने कदाच कषायनी मंदता अने ज्ञाननो उघाड भले होय परंतु तेमां आत्मानुं हित नथी, ते
चैतन्यनो खरो विलास नथी. चैतन्यना विलासनी अतीन्द्रिय मोज तो कोई परम अद्भुत छे!
कल्याण प्रगटे नहि. भूलनो ज ख्याल न आवे तो ते भूल भांगीने भगवान क्यांथी थाय? भगवानपणुं अने
भूल–ए बंनेने जे जीव समजे तेने पोतामां भूल टळीने भगवानपणानो विकास थया विना रहे नहि. मारो
स्वभाव शुं छे अने अंतरनी सूक्ष्म भूल क्यां रही जाय छे एनी खबर पड्या वगर अगियार अंग भण्यो तोपण
जीवनी भूल भांगी नहि. जो वर्तमानमां भूल छे तो नक्की थाय छे के निजस्वभावनी जेवी रुचि होवी जोईए तेवी
रुचि करी नथी, अने जो भूल न होय तो निजस्वरूप समजायुं होवुं जोईए अने तेना आनंद वगेरेनो विलास
खीलवो जोईए. संकोच वगरनो मारो स्वभाव केवो छे अने अत्यार सुधी पर्यायमां संकोच केम रह्यो–ए वात जेने
पकडतां न आवडे ते जीव संकोचपर्यायनो नाश न करी शके अने तेने संकोच वगरनो विकास प्रगटे नहि.
पण नक्की कर्युं ज छे के ते पर्यायो द्रव्यमांथी आवे छे, बहारथी नथी आवती; एटले एम नक्की करनारनी द्रष्टि
बहारमां नथी रहेती पण अंतरमां पोताना द्रव्य उपर तेनी द्रष्टि जाय छे. अने द्रव्यमां तो संकोच वगरनो
विकास थवानो स्वभाव छे तेथी ते द्रव्यनी द्रष्टिना जोरे पर्यायमां क्रमबद्ध विकास ज थतो जाय छे. आ रीते
क्रमबद्ध पर्यायना निर्णयमां द्रव्यद्रष्टि अने मोक्षमार्गनो अपूर्व पुरुषार्थ आवी जाय छे.
एकत्वरूप छे, ते पर्यायमां पण अमर्यादित ताकात छे. आत्मा अमुक क्षेत्र अने अमुक काळने ज जाणी शके–एवी
मर्यादा नथी; पण अमर्यादित क्षेत्र अने अमर्यादित काळने जाणे एवी तेना चैतन्यविलासनी अमर्यादित शक्ति
छे. पांच क्रोड माणसोना टोळामां लाउडस्पीकरथी कोईक एम बोल्युं के ‘आत्मा अनंत गुणनो भंडार छे, तेने
ओळखो!’ त्यां सांभळनारा बधाने तेवो ख्याल आवे छे, अने ‘अत्यारे आ पांच क्रोड माणसो आ जातनुं
सांभळी रह्या छे’ –एम पांच क्रोडनुं ज्ञान एक सेकंडमां थई जाय छे, पांच क्रोडनुं जाणतां कांई पांच क्रोड
सेकंडनी वार नथी लागती. ज्ञाननो स्वभाव तो एकसाथे बधुं जाणी लेवानो छे, तेमां मर्यादा एटले के हीनता
रहे ते तेनो स्वभाव नथी. ज्यां आत्मानी आवी शक्तिनुं भान थयुं अने तेनो विकास थयो त्यां अनंत
सिद्धभगवंतो तीर्थंकरो केवळी भगवंतो संतो वगेरेनो ख्याल पोताना ज्ञानमां आवी गयो; पछी ते जीवने शंका
रहेती नथी, बीजाने पूछवुं पडतुं नथी. आत्मानुं ज्ञानसामर्थ्य एवुं बेहद विशाळ छे के एक तेने जाणतां बधानुं
ज्ञान थई जाय छे.
स्वभावनो पूर्ण विकास जेमने प्रगटी गयो होय एवा केवळीनी अंर्त–बाह्य दशा केवी होय, ते स्वभावना साधक
संत–मुनिओनी दशा केवी होय, सम्यग्द्रष्टि जीवोनी दशा केवी होय, पर्याय–