Atmadharma magazine - Ank 112
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: महा : २००९ : आत्मधर्म–११२ : ७५ :
एवी अपूर्व समजण माटेनो प्रयत्न पण अपूर्व होवो जोईए.
अहो! मारा चैतन्यनो विलास, चैतन्यनो आनंद, चैतन्यनो मोक्षमार्ग अने चैतन्यनो मोक्ष–ए बधुं
मारा चैतन्यद्रव्यना ज आश्रये छे–आवी अंर्तश्रद्धा–ज्ञान करतां पर्यायनो विकास प्रगटे, विकार टळे, शुद्धता
वधे ने अमर्यादित ज्ञान–आनंदनो विकास खीले. जे जीव आम नथी जाणतो ते खरेखर देव–गुरु–शास्त्रने
जाणतो नथी, आत्माने जाणतो नथी ने जैनशासनने पण जाणतो नथी.
पर्यायबुद्धिथी लाभ थाय–ए तो वात छे ज नहि, पण ‘पर्यायबुद्धि छोडुं’ एवी वात पण अहीं नथी
लीधी, त्रिकाळी शक्तिना पिंडरूप अभेद चैतन्यद्रव्यने ज द्रष्टिमां लेवानी वात करी छे, ते द्रव्य उपर द्रष्टि करतां
पर्यायद्रष्टि रहेती ज नथी. अनादिकाळथी जीवने आ संसार पर्यायबुद्धिथी ज ऊभो छे, अंतरमां परिपूर्ण
शक्तिना पिंडरूप द्रव्य सदाय छे, पण पर्यायबुद्धि छोडीने ते द्रव्यनी सामे कदी जोयुं नथी. अहो!
त्रिकाळस्वभावना अंतरअवलोकननी आळसे ज मुक्ति अटकी छे. जेम भगवान सामे ज बिराजता होय पण
पोते आंख उघाडवानी आळस करे तो भगवान क्यांथी देखाय? तेम आत्मा पोते चैतन्यभगवान छे ते
पोतानी पासे ज छे पण अंर्तनयननी आळसे तेने देखतो नथी, तेथी संसारमां रखडे छे. लोकमां पण कहे छे के
‘मारा नयणनी आळसे रे....नीरख्या न हरिने जरी’ हरि एटले बीजो कोई नहि पण पोतानो आत्मा;
नयणनी आळसे एटले ज्ञानचक्षुना प्रमादने लीधे पोते पोताने देख्यो नहि. पापना ओघने जे हरे ते हरि; –कई
रीते हरे? के हरि एवो जे पोतानो शुद्ध चैतन्य परमेश्वर, तेने द्रष्टिमां लेतां ज मिथ्यात्व वगेरे पापसमुहनो
नाश थई जाय छे. मिथ्यात्वादिनो नाश करवो ते पण व्यवहारथी कथन छे, खरेखर तो शुद्ध चैतन्यनी द्रष्टिमां ते
मिथ्यात्वादिनी उत्पत्ति ज थती नथी. जुओ, आ प्रभुना दर्शन करवानी रीत! अहीं आचार्यदेव आत्माने पामर
कहीने संबोधता नथी पण आत्मानी प्रभुता देखाडे छे; साक्षात् चैतन्यप्रभुनी प्रगटता देखाडाय छे, तुं तारा
ज्ञाननयन खोलीने देख–एटली ज वार छे. संकोच अने विकार थयो छे ते क्षणिक पर्यायनी योग्यता छे पण तारी
त्रिकाळी शक्ति तेवी नथी; माटे ते विकार अने संकोचपर्यायनी सामे ज जोतां आत्मानी प्रतीत थती नथी, त्रिकाळी
आत्मस्वभावनी सामे जोतां आत्मानी प्रतीत थाय छे ने तेमांथी अमर्यादित असंकुचित विकास प्रगटे छे.
कोई कहे के आत्मामां असंकुचितविकासत्व स्वभाव होवा छतां अत्यार सुधी तेनी पर्यायमां संकोच केम
रह्यो? तो तेनुं कारण ए छे के जीवने अनादिथी पर्यायबुद्धि छे एटले ते क्षणिक पर्याय जेटलो ज पोताने माने छे,
पण पोताना स्वभावसामर्थ्यने ध्यानमां लेतो नथी. जो स्वभावने लक्षमां लईने तेमां एकाग्र थाय तो पर्यायमांथी
संकोच टळीने विकास थया विना रहे नहि. अहीं तो द्रव्यपर्याय सहितनी वात छे, एटले के साधकनी वात छे;
साधक जीवे पोतानी स्वभावशक्तिने प्रतीतमां लीधी छे ने पर्यायमां तेने ते शक्तिओनुं निर्मळ परिणमन ऊछळे
छे. जे जीव पोतानी स्वभावशक्तिने प्रतीतमां नथी लेतो तेने तेनुं निर्मळ परिणमन ऊछळतुं नथी, –एवा जीवनी
अहीं वात नथी.
जीवनी पर्यायमां अनादिथी जे संकोच छे ते कोई परना कारणे नथी पण पोतानी ज पर्यायमां भूलने
कारणे छे. जे जीव पोतानी पर्यायनी भूलने न पकडे अने परने कारणे पोतानी पर्याय संकोचाणी छे–एम माने,
ते जीव भले राग घटाडीने घणा शास्त्रोनी धारणा करी जाय तोय तेने आत्मानो लाभ न थाय. अने, मारी
पर्यायमां संकोच छे ते मारी पोतानी भूलने कारणे छे, कोई परना कारणे
(अनुसंधान पृष्ठ ६६ थी चालु)
स्वरूप तरफ वलणना जोरमां शांतिनाथ भगवान भव–तन–भोगथी उदास–उदास थई गया छे; स्मशाननी
चेहमां पडेला मडदानी शोभानी जेम संसारथी उदास छे अर्थात् जेम स्मशाननी चेहमां पडेला मडदाने कोई हार
वगेरेथी शणगारे तो त्यां कांई मडदुं प्रसन्न थतुं नथी ने तेने बाळे तो कांई खेद थतो नथी केमके मोह करनारो
अंदरथी चाल्यो गयो छे तेम भगवाननो आत्मा आखा संसारथी उदासीन थई गयो छे, तेने कोई प्रत्ये राग–
द्वेष नथी केमके अंदरना मोहनुं मृत्युं थई गयुं छे. अमारा चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंद पासे अमने पुण्य–पाप
के शरीर–भोग सारा लागता नथी, जागृत चैतन्यनी सत्ता पासे ए बधा मडदा जेवा लागे छे. –आ प्रमाणे
भानसहित वैराग्य पामीने शांतिनाथ भगवाने चारित्रदशा अंगीकार करी.
–ते चारित्रदशानुं वर्णन अने मुनिपदनो महिमा बतावतो आ प्रवचननो बाकीनो भाग हवे पछी
आपवामां आवशे.