विभूतिनो संयोग हतो, छतां अंर्तस्वभावमां भान हतुं के आ कोई मारुं स्वरूप नथी, आ बधो पुण्यनो ठाठ
छे तेमां क्यांय मारा आत्मानुं सुख नथी. भगवान जन्म्या त्यारथी ज तेमने आवुं आत्मज्ञान हतुं. पूर्व
भवोमां आत्मज्ञान पामीने तेमणे दर्शनमोहनो नाश कर्यो हतो पण हजी राग बाकी हतो, ते भूमिकामां जे पुण्य
बंधाया तेना फळमां बाह्यमां चक्रवर्ती वगेरे पदनो संयोग थयो. शुद्ध आत्मानी श्रद्धाना जोरे भव तन अने
भोगोथी उदासीनता तो प्रथमथी ज तेमने हती. हुं चैतन्यमूर्ति आत्मा असंसारी, अशरीरी अने अभोगी छुं;
भव तन के भोग ते हुं नथी, हुं तो भवरहित मुक्तस्वरूपी छुं, शरीररहित सिद्धसमान छुं अने भोगरहित
असंयोगी छुं; क्षणिक विकार के शरीरादि ते मारुं स्वरूप नथी. –आवा आत्मस्वभावना भानसहित भगवान
अवतर्या हता. ज्यांसुधी चक्रवर्तीपदे हता त्यांसुधी अस्थिरताना राग–द्वेष थता हता परंतु तेमने तेनी भावना
न हती, भावना तो आनंदमूर्ति आत्मस्वभावनी ज हती.
ते जोतां ज तेओ आश्चर्यथी विचारमां पडी गया अने तेमने पोताना पूर्वभवोनुं स्मरण थई आव्युं. पूर्वभवनुं
स्मरण थतां ज तेमने संसार प्रत्ये अतिशय वैराग्य थयो अने अनित्य अशरण वगेरे बार
वैराग्यभावनाओनुं चिंतवन करवा लाग्या. अहो! मारो आत्मा शाश्वत चैतन्यघन अशरीरी छे, भोगरहित छे,
भवरहित छे, आनंदमूर्ति चैतन्य ए ज मारुं कायमी शरीर छे. –आवा आत्मानुं भान होवा छतां तेमां लीनता
वगर पूर्ण शांति नथी. भोगमां मारुं सुख नथी तेमज भोगनो राग मारा स्वरूपमां नथी, ते रागने छेदीने
चैतन्यना आनंदमां तरबोळ थाउं ते मारुं स्वरूप छे. अहो! हवे हुं मुनि थईने एवी दशा प्रगट करुं! –आ
प्रमाणे भगवान दीक्षा–भावना भावता हता.
भगवानना दीक्षाकल्याणकनो महोत्सव ऊजव्यो अने भगवान स्वयं दीक्षित थया.
पण भगवान लांबो काळ गृहवासमां रोकाय–एम जेओ माने छे तेओए भगवानना उत्कृष्ट वैराग्यने
ओळख्यो नथी. जेम