: ६४ : आत्मधर्म–११२ : महा : २००९ :
स्मशाने गयेला मडदा पाछा घरे आवता नथी तेम वैराग्य पाम्या पछी तीर्थंकर–भगवंतो गृहवासमां रोकाता
नथी, केमके मोहनुं मृत्यु थई गयुं छे.
* भगवानना वैराग्यनी छाया *
शांतिनाथ भगवानने छ खंडनुं राज्य अने ९६००० राणीओनो संयोग होवा छतां पाणीमां रहेला कमळनी
जेम अंदर चैतन्यनी द्रष्टिमां क्यांय तेने अडवा दीधुं न हतुं. राणीओनां हृदय पण चमकी ऊठतां के आ कई क्षणे
वैराग्य पामीने वनमां चाल्या जशे! वनमां विचरता एकलवाया सिंहनी जेम भगवान एकत्वभावना भावीने, आ
बधुं छोडी क्यारे वनमां चाल्या जशे!! –आवी तो भगवानना वैराग्यनी छाया राणीओना हृदयमां छवाई गई हती.
चक्रवर्तीपणे हजारो राणीओना संगमां रह्या छतां पण भगवानने तेमां क्यांय सुखबुद्धि न हती, अंतरमां
चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंदनो अंशे अनुभव हतो एटले अंतरमां ते बधाथी उदास–उदास हता. राणीओने पण
अंदर नक्की थई गयुं हतुं के ‘आ भोगी नथी पण संसारमां रहेलो योगी छे; अमारा उपरनो राग क्षणमां छोडीने
गमे त्यारे चाली नीकळशे. तेनी रुचिनुं जोर स्वभावमां छे; विषय–भोगमां क्यांय तेनी रुचि नथी. अमारे लीधे
तेने राग थतो नथी, निमित्तने लीधे राग थाय एम ते मानता नथी, पर्यायनी नबळाईथी राग थाय छे, पण
ईन्द्रियोना भोगरहित अतीन्द्रियस्वभावना आनंदमां लीन थईने तेनो भोगवटो करवानी ते वारंवार भावना
भावे छे; एटले स्वभावनी सबळाईना जोरे आ नबळाईनो राग तोडीने, क्षणमां आ बधुं छोडीने चाल्या जशे.’
अहो! आत्माना अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद जेणे चाख्यो छे एवा ज्ञानीजनो ईन्द्रिय–विषयोमां सुख
मानीने तेमां मग्न थाय–एम कदी बनतुं नथी, ज्ञानीने आत्माना आनंद पासे विषयो एकदम तुच्छ भासे छे
एटले विषयो प्रत्येथी तेने सहेजे उदासीनता थई जाय छे.
* भगवाननी भावना *
हुं असंयोगी चैतन्यमूर्ति छुं; एक परमाणुथी मांडीने छ खंडनी रिद्धि ते बधोय अचेतननो स्वभाव छे,
तेमां क्यांय मारुं सुख नथी अने मारा चैतन्यस्वभावमां ते कोई त्रणकाळ त्रणलोकमां नथी–आवुं भिन्नपणानुं
भान तो भगवानने पहेलेथी ज हतुं. आवा भानसहित भगवान अंतरमां भावना भावता हता के–
रजकण के रिद्धि वैमानिक देवनी
सर्वे मान्या पुद्गल एक स्वभाव जो....
जेने हजी जड–चैतनना भिन्नपणानुं ज भान न होय तेने तो परथी भिन्न चैतन्यनी भावना पण
क्यांथी होय? भगवानने भिन्नतानुं भान तो हतुं छतां अल्प रागने लीधे पर तरफ वलण जतुं हतुं, ते पर
तरफना भावोथी पाछा हठीने चैतन्यमां लीन थवा माटे भगवान वैराग्यभावना भावता हता....
अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे.
क्यारे थईशुं बाह्यांतर निर्ग्रंथ जो;
सर्व संबंधनुं बंधन तीक्ष्ण छेदीने,
विचरशुं कव महत्पुरुषने पंथ जो.
× × ×
जीवित के मरणे नहि न्यूनाधिकता
भव मोक्षे पण शुद्ध वर्ते समभाव जो.
अहो, आत्माना आनंदमां एवी लीनता जामे के ‘भव टाळुं ने मोक्ष करुं’ एवी रागनी वृत्ति पण न
ऊठे, –आवी धन्यदशा क्यारे आवशे?
–कोण आ भावना भावे छे?
चक्रवर्ती राजमां रहेला शांतिनाथ भगवान आ भावना भावे छे. गृहस्थपणामांय सम्यक् आत्मभानना
बळे भगवानने आत्माना स्वभाव सिवायना बधा भावोमांथी रुचि तो ऊडी गई हती, ने पूर्ण उदासीनता
माटे–सर्वसंगपरित्यागी मुनिदशा माटे–तेओ भावना भावता हता....... केवी मुनि दशा....? के–
‘सर्व भावथी औदासीन्य वृत्ति करी,
मात्र देह ते संयम हेतु होय जो.
अन्य कारणे अन्य कशुं कल्पे नहि,
देहे पण किंचित् मूर्छा नव होय जो.’
अंतरमां त्रण कषायना अभावरूप वीतरागभाव प्रगट्यो होय ने बहारमां पण सर्वसंगपरित्यागी दिगंबर दशा