वैराग्य जागृत थयो. वैराग्य थतां दीक्षा माटे तेओ एवी भावना चिंतववा लाग्या के अहो! आ पहेलांंना
भवमां हुं सर्वार्थसिद्धिमां अहमिंद्रदेव हतो अने तेनी पहेलांंना भवमां हुं मुनि हतो; ते वखते मारी
अनुभवदशा अधूरी रही गई ने राग बाकी रह्यो तेथी आ अवतार थयो. हवे ते राग छेदीने आ ज भवे हुं
मारी मुक्तदशा प्रगट करवानो छुं. संसारना भोग खातर मारो अवतार नथी पण आत्माना मोक्ष खातर मारो
अवतार छे....हुं भगवान थवा अवतर्यो छुं....आ संसार शरीर ने भोगोथी विरक्त थई असंसारी अशरीरी
झूलवा मारो अवतार छे. –आ प्रमाणे भगवान संसारथी विरक्त थई आत्माना आनंदना वळांकमां वळ्या.
‘अहो! धन्य एनो अवतार....! ’
पण वस्त्र न होय, आहार माटे पात्र न होय, पाणी पीवा माटे कमंडळ होय नहि, फक्त देहनी अशुचि साफ
करवा माटे कमंडळ होय छे; परंतु, तीर्थंकर भगवाननो देह तो जन्म्या त्यारथी स्वभावथी ज अशुचि वगरनो
होय छे तेथी तेमने तो कमंडळ पण नथी होतुं. मुनिदशामां आत्मानी परिणति ज एटली बधी वीतरागी थई
गई होय छे के शरीरना रक्षण खातर वस्त्रादि बाह्य पदार्थोना ग्रहणनी वृत्ति ज नथी ऊठती. आटली हदनी
वीतरागी परिणति वगर छठ्ठा–सातमा गुणस्थाने झूलती मुनिदशा होती नथी.
छोड्युं जतुं नथी; दिवसमां एक ज वखत निर्दोष आहारनी वृत्ति ऊठे छे. खरेखर तो संसार त्याग करती वखते
मुनिए जे निश्चय प्रत्याख्याननी प्रतिज्ञा करी तेमां निर्दोष आहारनी वृत्तिनुं पण प्रत्याख्यान कर्युं हतुं;
पंचमहाव्रतनी शुभवृत्ति पण न करवी ने चैतन्यना अनुभवमां लीन थवुं–एवी ज भावना हती. पण पाछळथी
आहारादिनी शुभवृत्ति उठतां मुनि विचारे छे के : अरे, मारा निश्चयप्रत्याख्यानमां भंग पड्यो! अप्रमत्तपणे
आत्मअनुभवमां ठरवानी प्रतिज्ञा हती ने विकल्पनुं प्रत्याख्यान कर्युं हतुं, –ए रीते पूर्णदशानी ज भावना हती,
पण अप्रमत्तपणे आत्मामां स्थिर न रहेवायुं ने आहारनी वृत्ति उठी तेटले अंशे मारा निश्चय प्रत्याख्यानमां
भंग पड्यो छे; –माटे हुं तेनुं प्रतिक्रमण करीने निश्चय प्रत्याख्याननी संधि जोडी दउं छुं. जुओ, आ दिगंबर
संतोनी उग्र वाणी! आ संतोनी वाणीमां वीतरागता भरी छे. श्री जयधवलाकार कहे छे के संतो तो स्वरूपमां
ठरवाना ज कामी हता–तेमने निश्चय प्रत्याख्याननी ज प्रतिज्ञा हती, छतां स्वरूपमां पूर्णपणे न ठरायुं तेथी आ
करवानी मुनिनी भावना नथी; छतां ते वृत्ति ऊठे छे तो तेने निश्चयप्रत्याख्यानमां दोषरूप जाणीने छोडे छे,
–तेनुं प्रतिक्रमण करीने पाछा निर्विकल्पपणे स्वरूपमां ठरे छे. –आवी संत–मुनिओनी दशा होय छे.
तेना प्रत्येनी मूर्छा छूटी जाय छे अने देहनी दशा सहज दिगंबर होय छे. चौद ब्रह्मांडना मुनिओनी दशा सदा
आवी ज होय छे, वस्त्र के पात्रना परिग्रहनी वृत्ति तेमने कदी होती नथी; छठ्ठा–सातमा गुणस्थाननी भूमिकानो
आवो स्वभाव छे. आ ज अनंत तीर्थंकर–संतोए पोते पाळेलो अने कहेलो मुक्तिनो राजमार्ग छे. आवा
मुक्तिना राजमार्गे चालवा शांतिनाथ भगवान आजे तैयार थया छे.