Atmadharma magazine - Ank 112
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: ६६ : आत्मधर्म–११२ : महा : २००९ :
* तीर्थंकरोना पंथे *
अनंता तीर्थंकरो जे पंथे विचर्या तेनो हुं केडायत थाउं छुं; अमारा पुरुषार्थमां वच्चे भंग पडे नहि, अमे
अप्रतिहत पुरुषार्थवाळा छीए. –भगवान शांतिनाथ प्रभु कहे छे के अमे हवे अमारा आत्मस्वभावमां वळीए
छीए....अंतरनी चैतन्यगुफामां ऊंडा ऊतरीने निर्विकल्पस्वभावना गाणां गावा अने ते प्रगट करवा अमे
तैयार थया छीए हवे अमारे स्वरूपमां ठरवानां टाणां आव्या छे. अंतरना आनंदकंदस्वभावनी श्रद्धासहित तेमां
रमणता करवा जाग्या ते भावमां हवे भंग पडवानो नथी....अमारो जागेलो भाव तेने अमे पाछो पडवा देशुं
नहि....अखंड आनंदस्वभावनी भावना सिवाय पुण्य–पापनी भावनानो भाव हवे अमने कदी आववानो नथी.
अनादि प्रवाहमां अमारा जेवा अनंत तीर्थंकरो थया, तेमना कुळनी जातनो हुं छुं. क्षत्रिय वगेरे कुळ छे
ते खरेखर आत्मानुं कुळ नथी. तीर्थंकरो आत्माना चैतन्य–कुळमां अवतर्या ते ज तेमनुं साचुं कुळ छे. अहो, एक
चिदानंदी भगवान सिवाय बीजो कोई भावने मनमंदिरमां आणुं नहि, एक चैतन्यदेवने ज ध्येयरूप बनावीने
तेना ध्याननी लीनताथी आनंदकंद स्वभावनी रमणतामां हुं क्यारे पूर्ण थाउं! वच्चे भंग पड्या विना एकला
चैतन्यस्वभावनो ज आश्रय करीने केवळज्ञान प्रगट करवुं ते अमारा–तीर्थंकरोना कुळनी टेक छे. तीर्थंकरो ते ज
भवे केवळज्ञान लीधे छूटको करे. अनंता तीर्थंकरो आत्मानुं वीतरागी चारित्र पूरुं करीने ते भवे केवळज्ञान अने
मुक्ति पाम्या. जे पंथे अनंत तीर्थंकरो विचर्या ते ज पंथना चालनारा अमे छीए, हुं चिदानंद नित्य छुं ने संसार
बधो अनित्य छे, मारो आनंदकंद धु्रवस्वभाव ए ज मने शरण छे, जगतमां बीजुं कंई मने शरण नथी.
–आवा प्रकारनी वैराग्यभावना भावीने भगवाने दीक्षा लीधी.
* धन्य ए अवसर...धन्य ए भावना... *
अहो! साक्षात् तीर्थंकर भगवान ज्यारे दीक्षा लेता हशे ते काळ केवो हशे! अने ते प्रसंग केवो हशे!
भगवाननी दीक्षा वखते चारे कोर वैराग्यनी छाया छवाई जाय छे, अने अनेक राजाओ पण भगवाननी साथे
दीक्षित थई जाय छे. अहा! धन्य ए अवसर! जीवने आत्माना सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी भावना पण
अनंतकाळमां दुर्लभ छे. तेथी नियमसारमां कह्युं छे के–
मिथ्यात्व–आदिक भावने चिरकाळ भाव्या छे जीवे;
सम्यक्त्व–आदिक भाव रे! भाव्या नथी पूर्वे जीवे. : ९० :
–माटे ए सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी भावना भाववा जेवी छे.
* संसारनी स्थिति अने धर्मात्मानी निःशंकता *
आ संसारमां अज्ञानीपणे रखडतां पूर्व भवनी माताने स्त्री तरीके तें अनंतवार भोगवी,
–अरे जीव! स्वर्ग–नरकनां ने कीडा–कूतरानां अनंत भवो ते कर्यां; संसारमां रखडतां एक भवमां जे तारी माता
हती ते ज बीजा भवमां तारी स्त्री थई, एक भवमां जे तारी स्त्री हती ते ज बीजा भवे तारी जनेता थई, एक
भवे जे तारो बंधु हतो ते ज बीजा भवे तारो दुश्मन थयो....अहो! धिक्कार छे आवा संसारने...आवो संसार
हवे अमारे स्वप्नमां पण जोतो नथी. आ संसारभावने धिक्कार छे के जेमां, जेने पेटे सवानव महिना रहीने
माता तरीके स्वीकारी होय तेने ज बीजा भवमां स्त्री तरीके भोगववानुं थाय....अरे! आ संसार! अनंतकाळ
सुधी आत्माना भान वगर आवा संसारमां रखडया....हवे अमे आ संसारमां फरीथी अवतरवाना नथी. अमे
आत्मभान सहित तो अवतर्या ज छीए ने हवे आ भवे केवळज्ञान प्रगट करीने मुक्त थवाना छीए....हवे
फरीथी आ संसारमां नवो देह धारण करवाना नथी....
जुओ तो खरा, आ धर्मात्मानी निःशंकता! भगवान शांतिनाथ प्रभु कहे छे के आ संसारना रागने
छोडीने आजे अमे अमारा चारित्रधर्मने अंगीकार करशुं...ने आ ज भवे पूर्ण परमात्मा थईशुं....हवे अमे बीजो
भव करवाना नथी. जीवने अनंत संसारमां रखडतां कदी नहि पामेल एवी एक मुक्तदशा ज छे, तेने हवे अमे
प्राप्त करीशुं.
जुओ, अंतरमां चैतन्यस्वभाव तरफना जोरपूर्वकनी आ भावना छे. सम्यग्द्रष्टि सिवाय बीजाने तो
तीर्थंकर भगवाने केवी भावना भावी हती ते भावनानुं स्वरूप समजवुं पण मुश्केल छे, तेने साची भावना
क्यांथी
होय? चैतन्य–
(अनुसंधान पृष्ठ ७५ उपर)