Atmadharma magazine - Ank 113
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 4 of 21

background image
: फागण: २४७९ आत्मधर्म : ८३ :
शांतिनाथ भगवानो वैराग्य:
चारित्रदशानुं
स्वरूप अने मुनिपदनो महिमा
अशरीरी चैतन्यनी भावना भावतां भवनो अभाव थई जाय छे. परनी
भावना भाववामां तो भाई! तारो अनंतकाळ चाल्यो गयो....हवे आवा चैतन्यनो
महिमा जाणीने तेनी भावना तो कर. एनी भावनाथी तारा भवना निवेडा
आवशे. अहो! आवी आत्मभावना करीने संतो निजस्वरूपमां ठरे त्यां जगतनुं
जोवा क्यां रोकाय? संताने तो आत्मानी ज धून लागी छे, आत्माना आनंदनी ज
लगनी लागी छे.
[दीक्षावनमां पू. गुरुदेवश्रीनुं खास प्रवचन : गतांकथी चालु : वीर सं. २४७५ जेठ सुद ४ लाठी]
आ भगवान श्री शांतिनाथ प्रभुना दीक्षा प्रसंगनुं प्रवचन चाले छे.
शांतिनाथ भगवानने आत्मस्वभावनुं ज्ञान तो हतुं ज, ने वैराग्य थतां अंतरमांथी
चारित्रदशा प्रगट करीने मुनि थया; ए वात गया अंकमां आवी गई छे. हवे ते
चारित्रदशानुं वर्णन तथा मुनिपदनो महिमा कहेवाय छे.
अहीं शांतिनाथ भगवाननी दीक्षानो प्रसंग छे अने अत्यारे प्रवचनमां प्रवचनसारनी १९५मी गाथा
वंचाय छे तेमां पण ‘श्रामण्यमां परिणमवानी’ ज वात आवी छे; बराबर चारित्रना प्रसंगे चारित्रनी ज गाथा
आवी छे.
भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव महाविदेह क्षेत्रमां जईने श्री सीमंधरनाथ परमात्मा पासेथी जे ज्ञानखजानो
लाव्या तेने पोताना आत्मामां संघरी राख्यो अने जगतना महाभाग्ये तेमना द्वारा आ परमागमोनी रचना
थई गई. तेमां मुनिदशाना चारित्रनुं वर्णन करतां तेओ श्री कहे छे के–
जो णिहदमोहगंठी रागपदोसे खवीय सामण्णे।
होज्जं समसुहदुक्खो सो सोक्खं अक्खयं लहदि।।
१९५।।
हणी मोहग्रंथि, क्षय करी रागादि, समसुख–दुःख जे
जीव परिणमे श्रामण्यमां, ते सौख्य अक्षयने लहे. १९५.
जुओ, आ चारित्रना परिणमननी दशा! चारित्रपणे परिणमेला मुनिओनी दशा आवी ज होय छे.
अहीं शांतिनाथ भगवाननी चारित्रदशानो प्रसंग छे, अने अहीं चारित्र ते शांतिनुं कारण छे–एवुं वर्णन छे....
तीर्थंकरोने क्षपकश्रेणी ज होय उपशमश्रेणी न होय, ने आ गाथामां पण आचार्यदेवे रागादिना क्षयनी वात
करीने क्षायिकभाव ज लीधो छे.
हुं ज्ञानानंदस्वभाव छुं–एवा आत्मभान सहित तो भगवान अवतर्या हता, ने हवे तेवा स्वभावमां
लीन थईने रागादिनो क्षय करे छे. भगवानने जेवुं आत्मभान हतुं तेवा आत्मभानपूर्वक ज चारित्रदशा होय
छे, ए सिवाय चारित्रदशा के मुनिपद होतुं नथी. मुनि तो तेने कहेवाय के जेना चरणे गणधरना पण नमस्कार
पहोंचे. अहो! गणधरथी वंदन थवा योग्य ए पद केवुं? गणधरना नमस्कार झीलवानी जेनी ताकात प्रगटी ते
मुनिदशानी शुं वात करीए!! गणधरदेव ज्यारे नमस्कारमंत्र बोले त्यारे कहे छे के––