एवुं साधुपद प्रगट कर्युं. ज्ञानस्वभावनुं भान तो पहेलांं हतुं ज, ने हवे ज्ञानस्वभावमां एकाग्रता वडे आत्मामां
चारित्रनी कोतरणी करी. भगवान चारित्रदशा प्रगट करीने आत्मध्यानमां लीन थया ने तरत ज मनःपर्ययज्ञान
प्रगट्युं, हजी तेमने केवळज्ञान थयुं न हतुं त्यारे पण तेमने महाविदेह वगेरे क्षेत्रना गणधरोनो नमस्कार ‘
भगवाननी चारित्रदशा तो अंतरमां आत्माना आश्रये हती, ते चारित्रदशामां दुःखनुं वेदन न हतुं पण
आत्माना अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव हतो.
तेम भगवाने राज्य अने राणीओ प्रत्येना रागने छोडी दीधो, पछी तेनी सामुंय जोयुं नहि. हजारो राणीओ
वलखती अने झंटिया तोडती रही गई के अरेरे! अमने भोगमां साथ आपनारो आजे एकलो वनमां चाल्यो
जाय छे....त्यारे ईंद्राणी तेमने शांत पाडतां कहे छे के अरे राणीओ! शांत थाव....शांत थाव...एणे तो हवे
रागनी लागणीओनो क्षय कर्यो छे, हवे तेने तमारा प्रत्ये रागनी वृत्ति नथी, ते तो ‘सम सुखदुःख’ थया छे,
एने कोई प्रत्ये राग नथी तेम ज कोई प्रत्ये द्वेष नथी...ए भोग खातर अवतर्या नथी पण तीर्थंकर थवा
अवतर्या छे. भगवान मिथ्यात्वनो तो नाश करीने ज अवतर्या हता ने हवे स्वभावना आश्रये राग–द्वेषनो क्षय
करीने तेओ श्रामण्यमां परिणमे छे.....एवा वीतरागी श्रामण्य वडे हवे तो भगवान केवळज्ञान प्रगट करीने
अक्षय सुखने पामशे.
ऊठे–एवी वीतरागी मुनिओनी दशा होय छे.
थई गई के–
मित्र के शत्रु, निंदा के प्रशंसा, जीवन के मरण–ए बंने दशाओ प्रत्ये वीतरागी समभाव छे, आ ठीक अने आ
सामो जीव कोई भक्ति करे के कोई निंदा करे ते बंने प्रत्ये समभाव छे एटले के खरेखर बाह्यमां लक्ष ज नथी.
अहा! आयुष्य हो के न हो, देह लाखो वर्ष टको के आजे ज वियोग थाव–एनो ते वीतरागी संतोने हर्ष के शोक
नथी. अरे, अप्रमत्त योगीओने भव अने मोक्ष प्रत्ये पण समभाव छे एटले के ‘भव टाळुं ने मोक्ष करुं’ एवो
रागद्वेषनो विकल्प पण नथी, तेओ तो स्वभावना अनुभवमां ज मग्न छे. स्वभावना अनुभवनी लीनतामांथी
बहार नीकळीने मोक्षनी वृत्ति पण नथी थती... स्वभावना आनंदनी लीनतामां एटलो समभाव प्रगटी गयो
छे के ‘भव क्यारे टळे’ एवो विकल्प ऊठतो नथी तेम ज ‘अल्पकाळे मोक्ष थशे’ एवो