Atmadharma magazine - Ank 113
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: फागण: २४७९ आत्मधर्म : ८५ :
पण विकल्प ऊठतो नथी, ईंद्र वगेरे भक्तो आवीने पूजा करे तो ते तरफनी रागनी लागणी नथी ने कोई
उपसर्ग करे तो त्यां द्वेष नथी. संसारमां अमारा कोई स्वजन के शत्रु नथी, अमे तो अमारा चिदानंद आत्मामां
लीन थईने डोलीए छीए, चैतन्यना आनंदसागरमां अमे झूलीए छीए, क्यांय बहारमां अमारुं लक्ष जतुं
नथी.–आवी मुनिवरोनी अनुभवदशा होय छे. तेमणे पोताना आत्मा साथे संबंध जोडीने जगत साथेना
संबंधने तोडी नाख्यो छे.
अहो जीवो! शांत थाव...शांत...समभाव करो! –केवो समभाव? के चैतन्यना अनुभवमां एकाग्र थतां
रागद्वेषनी लागणी ज उत्पन्न न थाय–एवो वीतरागी समभाव. आवो वीतरागी समभाव मुनिदशामां होय छे.
आवी वीतरागी मुनिदशा प्रगट्या पहेलांं चैतन्य ज्ञायकतत्त्वनी आंर्तद्रष्टिपूर्वक ‘कोई पर मारां मित्र के शत्रु
नथी’–एवी बुद्धिथी धर्मी जीवोने सम्यक्श्रद्धानो वीतरागी समभाव होय छे, ‘कोई पर मारा मित्र के शत्रु’
एवी मिथ्याबुद्धिथी थता रागद्वेष तेने टळी गया छे. मारा आत्मानुं हित के अहित करनार आ जगतमां कोई
नथी. जेने पोताना भावमां रुचे ते प्रशंसा करे अने जेने न रचे ते द्वेष करे, पण सौ पोतपोतामां ज तेवा भाव
करे छे; में तो मारा आत्माने समभावमां परिणमाव्यो छे–एम श्रामण्यमां परिणमेला मुनिओना हृदयमां शांति
छे.... अहो! ते मुनिओनी शांति! ते संतोने आत्मानी ज धून लागी छे, आत्माना आनंदनी ज लगनी लागी
छे, आत्मानी रमणतानी धूनमां सिद्धभगवान जेवा अतीन्द्रिय आनंदनो भोगवटो करे छे.....साधक संतो
आत्माना सहज आनंदरसमां लीन रहे छे.
आत्माना भानपूर्वक ज्ञानी एवा मुनिपदनी भावना भावे छे के–
एकाकी विचरतो वळी स्मशानमां.... वळी पर्वतमां वाघ सिह संयोग जो...
अडोल आमन ने मानमां नहि क्षोभता.... परम मित्रनो पाम्या जाणे योग जो....
–अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे?
अहो! एवो धन्य अवसर क्यारे आवे के हुं स्मशानमां एकलो जईने चैतन्यना ध्यानमां लीन थाउं!
जगतमां तो मडदाने बीजा लोको ‘ओ.... ओ....’ करता स्मशानमां उपाडी जाय ने त्यां बाळी नांखे,–पण हुं तो
एकलो मारी मेळे चैतन्यनी लगनीथी ‘“.....“....’ करतो स्मशानमां जईने देहथी भिन्न आत्मानुं ध्यान
करुं...“ना वाच्यभूत भगवान शुद्धात्माने ध्यानमां लईने चैतन्यस्वरूपने जागृत करतो, स्मशानमां मोहने
मडदानी जेम खाख करी नांखुं! हजी आवी दशा आव्या पहेलांं आ वात समजीने तेनी भावना करवामां पण
अलौकिक निर्जरा थाय छे. आ भावनामां एक ने एक वात फरी फरीने आवे तोय पुनरुकितदोष लगतो नथी.
जेने जेनी लगनी लागी होय ते तेनी भावनाने वारंवार घूंटया करे छे. जगतना अज्ञानी जीवो विषय–कषायनी
ऊंधी भावनाने वारंवार घूंटे छे, ने अहीं आत्मामां ठरवानी वीतरागी भावना वारंवार घूंटाय छे.
धर्मी जीव वीतरागी चारित्रनी भावना भावे छे के : अहो! ज्यां सिंह अने वाघ त्राड पाडता विचरता
होय एवा जंगलमां एकाकी आत्मस्वरूपमां क्यारे विचरता होईए! निर्भयपणे अडोल आसन होय...ने सिंह–
वाघ शरीरने खाई जशे एवो विकल्प पण मनमां न होय....अमे तो अंतरनी चैतन्यगुफामां रहेनार अरूपी
आनंदकंद, तेने कोण खाय?–ने कोण करडे? आ जड शरीर ते अमारी चीज नथी, देहथी भिन्नता जाणीने तेनुं
ममत्व छोडी दीधुं छे. वाघ आवीने शरीरने खाई जाय तो, अमे जे शरीरने छोडवा मांगीए छीए (–अर्थात् जेनुं
ममत्व छोडी दीधुं छे) तेने ते लई जाय छे तेथी ते अमारो मित्र छे. खरेखर तो मुनिओने चैतन्यनी लीनतामां
एवी वीतरागता थई गई छे के देह प्रत्येनो विकल्पेय नथी ऊठतो.–अहो! आवी आत्मभावना करीने संतो
निजस्वरूपमां ठरे त्यां जगतनुं जोवा क्यां रोकाय! –आवी अशरीरी चैतन्य स्वभावनी भावना विना धर्म न
होय. अशरीरी चैतन्यनी भावना भावतां भवनो अभाव थई जाय छे. परनी भावना करवामां तो भाई! तारो
अनंतकाळ चाल्यो गयो.....हवे आवा चैतन्यनो महिमा जाणीने तेनी भावना तो कर. एनी भावनाथी तारा
भवना निवेडा आवशे. श्री शांतिनाथ भगवान आवी भावना करीने मुनि थया तेम दरेक जीवे पोते पोतानी
शक्ति प्रमाणे भावना करवी. आवी भावनामां सौए साथ आपवा जेवो छे, आवी भावनानुं अनुसरण करवा
जेवुं छे.