Atmadharma magazine - Ank 113
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: ८६ : आत्मधर्म २४७९: फागण:
अहो! चैतन्यनी भावना भावीने जंगलमां जईने तेनुं ध्यान करीए ने तेमां एवा लीन थईए के
स्थिरबिंब देखीने शरीर साथे जंगलना रोझडां ने हरणां भ्रमथी पोताना शींगडा घसता होय.–आवी स्थितिमां
क्यारे होईए! ‘अमे तो आनंदकंद छीए’ एवा भानपूर्वक स्वभावनी भावना भावीने, राग तोडीने शांतिनाथ
भगवान वीतरागी मुनि थया, सुख–दुःखमां समभावी थया; सर्व प्रकारना उपसर्गमां समतानी भावना
भावीने–एटले के ते उपसर्गनी उपेक्षा करीने–निज चैतन्यमां लीनताथी आवी मुनिदशा थई. वन जंगलमां
एकाकी विचरता भगवानने बहारना संयोगनुं कांई दुःख न हतुं, तेओ तो आत्माना अतीनिद्रय आनंदनी
मोजमां लीन हता. मुनिदशामां दुःख नथी, मुनिदशा तो पूर्णानंदस्वरूप सिद्धदशानुं साधन छे, एटले
पूर्णानंददशाना साधनरूप ते मुनिदशामां पण सिद्धभगवान जेवा आनंदनो अंशे अनुभव होय छे. सम्यग्दर्शन–
ज्ञान–चारित्ररूप मुनिदशा तो सर्व दुःखना नाशनुं कारण छे, तो ते पोते दुःखरूप केम होय? जेओ चारित्रने
कष्टदायक के दुःखरूप माने छे तेओने मुनिदशानुं कांई भान ज नथी. बहारना संयोगनुं दुःख संतोने नथी, संतोने
तो स्वभावनी अपूर्व शांतिनुं वेदन छे.
भगवानने जे चारित्रदशा प्रगटी ते कोई बहारना क्रियाकांडथी प्रगटी नथी पण आत्मामां लीनताथी ज
प्रगटी छे. आत्मानुं चारित्र बहारना वेषमां के शरीरनी दशामां नथी, अरे! पंचमहाव्रतना शुभरागमां पण
खरेखर आत्मानुं चारित्र नथी; पण अंतरमां त्रिकाळी चैतन्यनाथ अनंत आनंदनी खाण छे ते फाटीने तेमांथी
चारित्रदशा प्रगटे छे. चैतन्यमां एकाग्रताथी ज चारित्र अने केवळज्ञान प्रगटे छे चारित्रदशा पामनार मुनिने
प्रथम तो ध्यानमां स्थिर थतां सातमा गुणस्थाननी अप्रमत्तदशा प्रगटे छे; ते वखते तो ‘हुं मुनि छुं के हुं ध्यान
करुं छुं’–एवी रागनी वृत्ति पण होती नथी. अंर्तमुहूर्त पछी छठ्ठा गुणस्थाने पंचमहाव्रत वगेरेनी वृत्ति ऊठे छे.
धोखमार्गमां एवी ज स्थि्ति छे के मुनिने पहेलांं अप्रमत्तदशा थाय, गुणस्थानश्रेणीमां पहेलांं सातमुं गुणस्थान
आवे ने पछी ज छठ्ठुं गुणस्थान आवे. मुनिओने प्रमत्तदशा एकसाथे लांबो काळ टकती नथी पण अप्रमत्तदशानो
निर्विकल्प अनुभव वारंवार थया ज करे छे.
मुनिदशामां आत्मा पोते चारित्रमां लीन थई जाय छे, आत्मा ज आनंदमय थई जाय छे.... आनंदकंद
चिदानंद स्वभावमां लीन थईने आत्मा ‘समसुखदुःख’ थयो तेना फळमां ते अक्षयसुख पामे छे. जुओ, मोहनो
नाश करीने ‘समसुखदुःख’ एटले के वीतरागभाव थयो ते ज मुनिनुं चारित्र छे अने अक्षयसुखनी प्रप्ति ते ज
तेनुं फळ छे; वच्चे राग आवे ते चारित्र नथी अने स्वर्ग मळे ते चारित्रनुं फळ नथी. स्वर्गनो भव थाय ते तो
रागनुं फळ छे, राग छेदीने वीतरागी चारित्रना फळमां मुक्ति थाय छे.
जगतना अज्ञानी प्राणीओ स्वर्गादिना ईंद्रियसुखमां सुखनी कल्पना करे छे ने तेना कारणरूप
शुभरागमां धर्मनी कल्पना करे छे–ए बंने मिथ्या कल्पना छे. स्वर्गना मानेला सुख ते साचा सुख नथी ने
शुभराग ते धर्म नथी. खरेखर स्वर्गमां सुख के रागमां धर्म भगवाने कदी कह्यो नथी; पण वीतरागभावे
आत्मामांथी प्रगटतुं सुख ते ज साचुं सुख अने धर्म छे. बहारनी सामग्रीमां तो भगवानने पहेलांं चक्रवर्तीनो
राजवैभव हतो छतां तेमां सुख नथी एम भगवाने जाण्युं हतुं, तेथी तेने छोडीने चाल्या गया. जो ते पुण्यना
फळमां सुख होत तो भगवान तेने केम छोडत? भगवाने तो ते प्रत्येनो राग छोडीने आत्माना अक्षयसुखने
साध्युं. एवुं पूर्ण सुख पाम्या पछी भगवानने अवतार होतो नथी. जुओ, आ भगवाननुं चारित्र! ए
चारित्रदशा पछी भगवानने भव होतो नथी. अहो! भगवाननो मार्ग तो जुओ....अप्रतिहतपणे सीधुं
केवळज्ञान. अंतरना चैतन्यमार्गे चड्या ते पाछा न पडे.
अरीसामां बे प्रतिबिंब जोतां श्री शांतिनाथ भगवानने वैराग्य थयो....अने “ नमः सिद्धेभ्यः एम सिद्ध
भगवंतोने नमस्कार करीने स्वयं दीक्षत थया, पछी आत्मध्यानमां सिद्धसमान चैतन्यगोळो छूटो पड्यो ने
अप्रमत्तदशा थई, तेम ज मनःपर्ययज्ञान प्रगट थयुं. भगवानने मति–श्रुत–अवधि ए त्रण ज्ञान तेम ज
जातिस्मरण ज्ञान तो हता ने ते उपरांत मनःपर्ययज्ञान थयुं. अहीं तो भगवानना दीक्षाकल्याणकनो
स्थापनानिक्षेपथी देखाव छे....तो ज्यारे तीर्थंकर भगवाननो दीक्षाकल्याणक साक्षात् थतो हशे ते प्रसंगे केवी दशा
हशे? अहो! जे चक्रवर्ती हता,