ओळखीने निर्णय करता नथी. हे भाई! ‘केवळज्ञानी छे’ एम तुं कहे छे, पण ते क्यां छे? महाविदेहमां सीमंधर
भगवान छे तेमनुं केवळज्ञान तो त्यां रह्युं, पण तारी प्रतीतमां केवळज्ञान आव्युं छे? जो तारी प्रतीतमां
केवळज्ञान आव्युं होय तो तने अनंत भवनी शंका होय ज नहि. केवळज्ञाननो निर्णय ज्ञानस्वभावना
अवलंबने ज थाय छे, रागना अवलंबनथी थतो नथी; केवळज्ञान प्रगट थवानुं सामर्थ्य क्यांय शरीरमां के
रागमां नथी पण मारा ज्ञानस्वभावमां ज केवळज्ञान थवानुं सामर्थ्य छे–आम जेणे प्रतीत करी तेने श्रद्धा
अपेक्षाए केवळज्ञान थयुं, अने भवनी शंका टळी गई. “केवळी भगवाने मारा अनंत भव दीठा हशे” एवी
शंका मिथ्याद्रष्टिने ज पडे छे, समकितीने कदी एवी शंका पडती नथी. “हुं अनंत संसारमां रखडीश.....” एवी
जेने शंका छे तेने ज्ञायकभावनी–केवळज्ञाननी प्रतीत नथी, ते अनंत भवनी शंकावाळो जीव केवळज्ञानने नथी
देखतो पण कर्मने ज देखे छे. भवरहित एवा केवळी भगवानने जे देखे छे तेने तो, जेमां भव नथी एवो
पोतानो ज्ञायकभाव प्रतीतमां आवी गयो छे, तेने हवे अनंत भव होता ज नथी अने केवळी भगवाने पण
तेना अनंत भव जोया ज नथी. तेम ज तेने पोताने पण अनंत भवनी शंका रहेती नथी.
ज्ञायक स्वभावनी द्रष्टिवाळाने ज केवळज्ञाननो स्वीकार थाय छे, कर्म उपरनी द्रष्टिवाळाने केवळज्ञाननो स्वीकार
थतो नथी. आ रीते केवळी भगवाननी प्रतीत भूतार्थस्वभावना आश्रय वगर थती नथी. जगतमां केवळज्ञानी
भगवान छे एम स्वीकारनारे आत्मामां केवळज्ञाननुं सामर्थ्य स्वीकार्युं छे; केवळज्ञान थवानुं सामर्थ्य पोतामां
छे–ते सामर्थ्यनी सन्मुख थईने ज केवळज्ञाननो यथार्थ स्वीकार थाय छे, ते सिवाय केवळज्ञाननी प्रतीत थती
नथी.
केवळज्ञाननो निर्णय कर्यो छे तेने अनंतभव होता ज नथी, जेणे भवरहित केवळज्ञाननो निर्णय कर्यो तेना
अनंतभव केवळी भगवाने देख्या ज नथी.
सामर्थ्यनो जेणे निर्णय कर्यो–तेने अल्पकाळमां ज मुक्ति थवानी छे–एम भगवानना केवळज्ञानमां नोंधाई
गयुं छे.
थईने साधकभावपणे परिणमे छे. केवळी भगवान द्रव्यथी तेम ज पर्यायथी पूर्ण ज्ञायक छे, अने परमार्थथी
मारो स्वभाव पण तेवो ज ज्ञायक छे, मारामां पण केवळज्ञाननुं सामर्थ्य छे–एम अज्ञानी जीव प्रतीत नथी
करतो; ते तो एकला व्यवहारनी ने रागनी ज प्रतीत करीने अशुद्धपणे ज पोताने अनुभवे छे. जेने पोताना
ज्ञायकभावनुं भान नथी ने पोताने अशुद्धपणे ज अनुभवे छे ते जीव खरेखर केवळज्ञानीने नथी देखतो पण
कर्मने अने विकारने ज देखे छे, तेने संसारनी ज रुचि छे.–एवा जीवने भवनी शंकानुं वेदन टळतुं नथी.
भूतार्थस्वभावना अवलंबन वगर केवळज्ञाननी पण प्रतीत थती नथी अने भवनी शंका मटती नथी; अने
भूतार्थस्वभावनुं अवलंबन लईने ज्यां केवळज्ञाननो निर्णय कर्यो त्यां भवनी शंका स्वप्ने पण वेदाती नथी केम
के स्वभावमां भव नथी. ज्यां अनंत भवनी शंका छे त्यां स्वभावनी ज शंका छे, ज्यां स्वभावनी निःशंकता
थई त्यां भवनी शंका रहेती नथी केवळज्ञाननी प्रतीत अने अनंत भवनी शंका–ए बंने साथे रही शकता नथी.
पामनारो भव्य ज छुं ने अभव्य नथी–एटली पण निःशंकता हजी जेने नथी थई, अने अनंत अनंतकाळमां
कदी पण सम्यग्दर्शन न थाय एवो अभव्य होवानो जेने संदेह वर्ते