Atmadharma magazine - Ank 118
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953).

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: ૨૧૪ : આત્મધર્મ–૧૧૮ : શ્રાવણ : ૨૦૦૯ :
(અનુસંધાન પુષ્ઠ ૨૧૨ થી ચાલુ)
ગા. ૧૬૧માં કહે છે કે : હે ભિક્ષુ! અગર વિષયભોગ સામગ્રીની જ તારી વાંછા હોય તોપણ થોડો સહનશીલ થઈ
સબૂર રાખ! તું જે ભોગાદિને ઈચ્છે છે તેથી વિપુલ અને ઉત્તમ દેવલોકમાં છે. ××× જે ધર્મકૃતિનું ફળ સ્વર્ગાદિ અનુપમ
અભ્યુદયો છે તેને, થોડો કાળ ધીરજ ધારી વૃત્તિને રોકી, આચર અને તેથી થોડા જ વખતમાં તારી ઈચ્છિત ભોગસામગ્રી તને
સ્વયં પ્રાપ્ત થશે.” “
[મુનિપદ ધારી વિષયાભિલાષી થવું જોકે કિંચિત્ પણ યોગ્ય નથી, તથાપિ ભ્રષ્ટ થતા જીવને લોભ દેખાડી
સદ્ધર્મમાં સ્થિર કરવો એ યોગ્ય છે –એમ સમજી આમ ઉપદેશ કર્યો છે] ” (પૃ. ૧૩૬)
* ‘સુભાષિત રત્નસંદોહ’ માં કહે છે કે ––
(શ્લોક ૩પ૬)
दैव बडा ही स्वेच्छाचारी है। देखो! न्यायसिद्ध तो यह बात है कि जो लोग नीतिपर चलनेवाले हैं –
योग्य कार्य करते हैं उन्हें ही लक्ष्मीवाला–धनवान करे और जो पथ्य से रहते हैं ––नियमानुसार आहार विहार करने वाले हैं
उन्हें ही निरोग बनावे। परंतु इसकी छटा विचित्र ही है–जो अनीतिसेवियों को –अन्यायमार्ग से प्रवर्तनेवालों को तो
धनवाला बनाता है और अपथ्य सेवियों–विरुद्ध आहार–विहार करनेवालों को निरोग बनाता है। जिससे स्पष्ट इस [दैव
अर्थात् कर्म] का स्वेच्छाचारीपना मालूम पडता है।।
(અહીં એમ કહ્યું છે કે વર્તમાનમાં અન્યાયી હોય તેવા જીવને પણ પૂર્વના
પુણ્યને લીધે ધનની પ્રાપ્તિ થાય છે, અને અપથ્ય આહારનું સેવન કરવા છતાં પૂર્વના પુણ્યને લીધે શરીર નીરોગ રહે છે.)
* (ગા.૩પ૭) जलधिगतोपि न कश्चित्कश्चित्तटगोपिरत्नमुपयाति।
पुण्यविपाकान्मर्त्यो मत्वेति विमुच्यतां खेदः।।
[अर्थः] कोई मनुष्य तो समुद्र के अंदर जाकर भी रत्न नहि पाता और कोई उसमें बिना जाये तटपर बैठा
बैठा ही रत्न पा लेता है इसलिये यह सब महिमा पाप और पुण्य की जानकर मनुष्यों को खेद छोड देना चाहिये।
* (ગા. ૩પ૯) जिनका भाग्य सीधा है उनका द्वीप, समुद्र, पर्वतों की शिखर, दिशाओं के अंत और कुए के
तल में गिरा हुआ भी रत्न मिल जाता है और जिनका वह भाग्य टेडा है उनका हाथ पर रखा हुआ भी नष्ट हो जाता
है।।
* (ગા. ૩૬૦)
विपदोपि पुण्यभाजां जायंते संपदोत्र जन्मवतां।
पापविपाकाद्विपदो जायंते संपदोऽपि सदा।।
[अर्थः] पुण्य के विपाक से इस संसार में जीवों पर आई हुई विपत्तियां भी संपत्तियां हो जाती हैं और पाप के
प्रभाव से संपत्तियां भी विपत्तियां बन जाती हैं।
* (ગા. ૩૬૬)
धनधान्यकोश निचयाः सर्वे जीवस्य सुखकृतः
संति भाग्येनेति विदित्वा विदुषा न विधीयते खेदः।।
[अर्थः] जीव को संसार में जितने भी धन धान्य खजाने आदि सुखदायक पदार्थ हैं वे सब भाग्य के अनुकूल
रहने पर ही होते हैं – ऐसा जानकर विद्वान लोग उसमें खेद नहि करते।।
* (ગા. ૩૭૦)
दयित जनेन वियोगं संयोगं खल जनेन जीवानां।
सुख–दुःखं च समस्तं विधिरेव निरकुशः कुरुते।।
[अर्थः] संसार में जीवों का इष्ट के साथ वियोग, अनिष्ट के साथ संयोग और सुख–दुःख की प्राप्ति कराना आदि
सब निर्भय रीति से प्रवर्तनेवाले दैव के हाथ में है। दैव ही विना किसी भय के इन सब बातों को करता है। [दैव–पूर्वकर्म]
* (ગા. ૩૭૨)
नश्यति हस्तादर्थः पुण्यविहीनस्य देहिनो लोके।
दूरादेत्य करस्थं भाग्ययुनो जायते रत्नं।।
[अर्थः] जो पुरुष भाग्यहीन है –जिसको पूर्वोपार्जित पापकर्म उदय में आ फल दे रहा है उसके हाथ में आया हुआ
भी धन नष्ट हो जाता है और जो पुण्यसहित है –सौभाग्यवाला है उसके दुष्प्राप्य और दूरवर्ती भी धन हाथमें आ जाता है।।
[–એ પ્રમાણે ‘सुभाषित रत्नसंदोह’ના ‘दैव अधिकार’માં સ્પષ્ટપણે વિસ્તારથી વર્ણન કર્યું છે કે જીવોને લક્ષ્મી
વગેરેનો સંયોગ–વિયોગ થવો તે દૈવનું એટલે કે પૂર્વકૃત પુણ્ય–પાપનું જ ફળ છે.)
શ્રી મહાપુરાણ (–આદિપુરાણ)ના પાંચમાં સર્ગમાં ભગવત્ જિનસેનાચાર્ય કહે છે કે––
[श्लोक १४] इतः श्रृणु खगाधीश वक्ष्ये श्रेयोऽनुबन्धि ते।
वैद्याधरीमिमां लक्ष्मी विद्धि पुण्यफलं विभो।।