Atmadharma magazine - Ank 118
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: २१२ : आत्मधर्म–११८ : श्रावण : २००९ :
‘वाञ्छत्येव सुखं तदत्र विधिना दत्तं परं प्राप्यते ×××’ [श्लोक–३६]
अर्थः– संसारमें समस्त प्राणी इन्द्रियोंसे पैदा हुए सुख की अभिलाषा सदा करते रहते हैं किन्तु वह सुख
कर्मानुसार ही मिलता है, इच्छानुसार नहि मिलता।
राजापि क्षणमात्रतो विधिवशाद्रङ्कायते निश्चितं
सर्वव्याधिविवर्जितोऽपि तरुणोऽप्याशु क्षयं गच्छति।
अन्यैः किं किल सारतामुपगते श्रीजीविते द्वे तयोः
संसारे स्थितिरीद्रशीति विदुषा क्वान्यत्र कार्यो मदः।।४२।।
[अर्थः] अपने पूर्वोपार्जित कर्म के वश से राजा भी क्षणभर में निश्चय से निर्धन हो जाता है तथा समस्त रोगों
से रहित भी जवान मनुष्य देखते देखते नष्ट हो जाता है, इसलिये समस्त पदार्थो में सारभूत जीवन तथा धन की जब
संसार में ऐसी स्थिति है तब और पदार्थो की क्या बात? अर्थात् वे तो अवश्य ही विनाशीक हैं, अतः विद्वानों को
किसी पदार्थ में अहंकार नहीं करना चाहिये।
श्री आत्मानुशासनमां कहे छे के ––
(गाथा: २१)
‘धर्मादवाप्त विभवो ×××
(अर्थ) “जे पुरुष धर्मना पसाये सुखसंपदारूप वैभव पाम्यो छे तेणे तो ×××”
“धर्मरूप बीज विना हजारो प्रकारे खेदखिन्न थवा छतां पण सुख प्राप्ति थती नथी. आचार्य भगवान कहे छे के हे भाई! जो तुं
विचक्षण होय तो एवो निश्चय कर के मने जे वर्तमान सुखसामग्री मळी छे ते मात्र एक पूर्व धर्मसेवननुं ज फळ छे.” (पृ. १४–१प)
* (गाथा–३१) “पुण्यं कुरुष्व कृतपुण्यमनीदृशोऽपि
नोपद्रवोऽभि भवति प्रभवेच्च भूत्य
संतापयन् जगदशेषमशीतरश्मिः
पद्मेषु पश्य विदधाति विकासलक्ष्मीम्।।
हे भव्यात्मा! जो तुं सुखनो अभिलाषी होय तो पुण्य कर. पुण्यवान जीवने प्रबळ उपसर्ग पण पीडा आपी शकतो
नथी. परंतु ए ज उपसर्ग कोई वेळा तेने महान विभूति प्राप्त थवानुं निमित्त थई पडे छे. ×××
जेओने पापनो उदय वर्ते छे तेमने ज उपद्रव दुःखदाता बने छे, परंतु पुण्योदय–प्राप्त जीवने तो उलटो विभूतिनो
आपनार थई पडे छे. जगतमां घणे ठेकाणे प्रत्यक्ष देखवामां आवे छे के जे उपद्रवथी सर्वने मोटुं दुःख थाय छे ते ज उपद्रवथी,
जेने पुण्योदय वर्ते छे तेने विपुल धनादिक प्राप्त थाय छे.” ×××(पृ. २३)
* (गाथा: ३७) “आयु श्रीवपुरादिकं यदि भवेत् पुण्यं पुरोपार्जितम्’
स्यात्सर्वं न भवेन्न तच्च नितरामायासितेऽप्यात्मनि।
जीवने दीर्घ आयु, लक्ष्मी, नीरोग अने सुंदर शरीर ईत्यादि मात्र एक पूर्वोपार्जित पुण्यना उदयथी ज प्राप्त थाय छे
अर्थात् जेणे पूर्वे पुण्य उपार्जन कर्युं होय तेने ज ए सर्व विभूति प्राप्त थाय छे, अन्यथा (पुण्य वगर) अनेक प्रकारे उद्यम
करवा छतां अने खेदखिन्न थवा छतां पण कंई पण प्राप्ति थती नथी.” (पृ. २८)
गाथा प६ ना अर्थमां कहे छे के ––“असाताना उदयथी ज्यारे ईच्छित परिग्रह जीवने न मळे त्यारे ते महादुःखी थाय
छे, अने साताना उदयथी पुण्यानुसार जे कांई मळे ते ओछुं पडे ––ए बळतराथी पण ते महा दुःखी थाय छे.” (पृ. ४३)
गाथा ६१ ना अर्थमां कहे छे के ––“लाभ–अलाभ, जीवन–मरण, वैरी–बंधु, राजा–रंक, संपदा–आपदा –ए सर्व द्वंद्व
अवस्थाओने कर्मजनित अने विनाशिक समज.’ (पृ. ४८)
* (गा.१४८) “साधारणौ सकलजंतुषु वृद्धिनाशौ
जन्मान्तरार्जितशुभाशुभकर्मयोगात्।
पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कर्म संयोगथी शरीरादि परपदार्थोनी हानि–वृद्धि तो सर्व संसारी जीवोने थाय छे, एमां जीवनुं
नाना–मोटापणुं खरी रीते जराय नथी.
धनादिनी वृद्धि अने निर्धनावस्थानो नाश करनारा जीवने लोको चतुर (–बुद्धिमान) कहे छे, तथा निर्धनावस्थानी
वृद्धि अने धनादिनो नाश थवाथी तेने मूर्खमां गणे छे. ––लोकोनी उपरोक्त मान्यता नितांत भूल छे, कारण के ए तो
पूर्वोपार्जित शुभाशुभ प्रारब्धोदयथी थाय छे; सर्व जीवोने एवी हानि–वृद्धि तथारूप प्रारब्धोदय वडे स्वयमेव थई रही छे.
××× जगतमां प्रत्यक्ष जोवामां आवे छे के –कोई कोई बुद्धिमान पुरुषो सरसाई पूर्वक पूरो प्रयत्न करवा छतां पण निर्धन रहे
छे; ज्यारे कोई कोई मूर्ख जीवो विना प्रयत्ने, थोडा प्रयत्ने वा विपरीत प्रयत्ने पण धनवान थता जोवामां आवे छे. ××× एमां
जीवनो पुरुषार्थ मानवो ए निरर्थक जेवुं छे.” (पृ. १४८)
(अनुसंधान जुओ पृष्ठ २१४ उपर)