अनादिकाळनी दीनतानो अंत आवीने अपूर्व सिद्धपदनां निधान प्रगटे.
परद्रव्य के पुण्य ते आत्मानी खरी संपत्ति नथी, चक्रवर्तीनो
वैभव के ईन्द्रपदनी विभूति तेना वडे आत्मानी महत्ता नथी,
पण जुदी न पडे –ते ज आत्मानी खरी संपत्ति छे, ते ज
आत्मानो खरो वैभव छे अने तेनाथी ज आत्मानी महत्ता छे.
आवा स्वभावना बहुमानमां पर्यायमां ज्ञानादि प्रगटे तेनुं
ने जे तुच्छबुद्धि छे तेने ज अल्प पर्यायनुं ने परनुं अभिमान
थाय छे. बहारमां लक्ष्मी वगेरेनो संयोग आवे त्यां तेने पोतानी
अल्पकाळ रहीने चाल्यो जवानो छे, ते आत्मा साथे कायम
रहेवानो नथी माटे ते आत्मानी संपत्ति नथी. अनंतगुणनुं
चैतन्यनिधान अंदर त्रिकाळ भर्युं छे ते शाश्वत संपदाने अज्ञानी
ओळखतो नथी; जो ते अचिंत्य आत्मनिधानने ओळखे तो
परनुं अभिमान छूटी जाय ने अनादिकाळनी दीनतानो अंत
वैभवनी तो शुं वात!! चैतन्यसामर्थ्यनो कोई अचिंत्य महिमा
छे. –आवा अचिंत्य आत्मवैभवने ओळखवो ते ज