Atmadharma magazine - Ank 118
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २००९ : आत्मधर्म–११८ : २१३ :
अहो! अचिंत्य
आत्मवैभव...
अचिंत्य आत्मवैभवने ओळखवो ते ज सम्यग्दर्शननो अने
सिद्धपदनो उपाय छे. जो अचिंत्य आत्मनिधानने ओळखे तो
अनादिकाळनी दीनतानो अंत आवीने अपूर्व सिद्धपदनां निधान प्रगटे.
दरेक आत्मा अनंत शक्तिसंपन्न चैतन्य परमेश्वर छे. पण
पोताना अद्भुत आत्मवैभवने भूलीने मूर्ख जीवो बाह्य
वैभवथी पोतानी महत्ता समजे छे. लक्ष्मी मकान–स्त्री वगेरे
परद्रव्य के पुण्य ते आत्मानी खरी संपत्ति नथी, चक्रवर्तीनो
वैभव के ईन्द्रपदनी विभूति तेना वडे आत्मानी महत्ता नथी,
पोतानी अनंत चैतन्यशक्तिरूप संपत्ति –के जे आत्माथी कदी
पण जुदी न पडे –ते ज आत्मानी खरी संपत्ति छे, ते ज
आत्मानो खरो वैभव छे अने तेनाथी ज आत्मानी महत्ता छे.
आवा स्वभावना बहुमानमां पर्यायमां ज्ञानादि प्रगटे तेनुं
अभिमान थतुं नथी; जेने चैतन्यनी अपार महत्तानुं भान नथी
ने जे तुच्छबुद्धि छे तेने ज अल्प पर्यायनुं ने परनुं अभिमान
थाय छे. बहारमां लक्ष्मी वगेरेनो संयोग आवे त्यां तेने पोतानी
संपत्ति मानीने अज्ञानी अभिमान करे छे, पण ते संयोग तो
अल्पकाळ रहीने चाल्यो जवानो छे, ते आत्मा साथे कायम
रहेवानो नथी माटे ते आत्मानी संपत्ति नथी. अनंतगुणनुं
चैतन्यनिधान अंदर त्रिकाळ भर्युं छे ते शाश्वत संपदाने अज्ञानी
ओळखतो नथी; जो ते अचिंत्य आत्मनिधानने ओळखे तो
परनुं अभिमान छूटी जाय ने अनादिकाळनी दीनतानो अंत
आवीने सिद्धपदनां अपूर्व निधान प्रगटे.
अहो! अचिंत्य सामर्थ्यवाळा ने विकल्प विनाना एवा
पूर्ण शुद्धस्वभावरूप केवळज्ञान वैभवनो महिमा केटलो? अने
जेमांथी ते केवळज्ञान वैभव प्रगट्यो ते आत्मद्रव्यना अपार
वैभवनी तो शुं वात!! चैतन्यसामर्थ्यनो कोई अचिंत्य महिमा
छे. –आवा अचिंत्य आत्मवैभवने ओळखवो ते ज
सम्यग्दर्शननो अने सिद्धपदनो उपाय छे.
–प्रवचनमांथी