: २१४ : आत्मधर्म–११८ : श्रावण : २००९ :
(अनुसंधान पुष्ठ २१२ थी चालु)
गा. १६१मां कहे छे के : हे भिक्षु! अगर विषयभोग सामग्रीनी ज तारी वांछा होय तोपण थोडो सहनशील थई
सबूर राख! तुं जे भोगादिने ईच्छे छे तेथी विपुल अने उत्तम देवलोकमां छे. ××× जे धर्मकृतिनुं फळ स्वर्गादि अनुपम
अभ्युदयो छे तेने, थोडो काळ धीरज धारी वृत्तिने रोकी, आचर अने तेथी थोडा ज वखतमां तारी ईच्छित भोगसामग्री तने
स्वयं प्राप्त थशे.” “ [मुनिपद धारी विषयाभिलाषी थवुं जोके किंचित् पण योग्य नथी, तथापि भ्रष्ट थता जीवने लोभ देखाडी
सद्धर्ममां स्थिर करवो ए योग्य छे –एम समजी आम उपदेश कर्यो छे] ” (पृ. १३६)
* ‘सुभाषित रत्नसंदोह’ मां कहे छे के ––
(श्लोक ३प६) दैव बड़ा ही स्वेच्छाचारी है। देखो! न्यायसिद्ध तो यह बात है कि जो लोग नीतिपर चलनेवाले हैं –
योग्य कार्य करते हैं उन्हें ही लक्ष्मीवाला–धनवान करे और जो पथ्य से रहते हैं ––नियमानुसार आहार विहार करने वाले हैं
उन्हें ही निरोग बनावे। परंतु इसकी छटा विचित्र ही है–जो अनीतिसेवियों को –अन्यायमार्ग से प्रवर्तनेवालों को तो
धनवाला बनाता है और अपथ्य सेवियों–विरुद्ध आहार–विहार करनेवालों को निरोग बनाता है। जिससे स्पष्ट इस [दैव
अर्थात् कर्म] का स्वेच्छाचारीपना मालूम पडता है।। (अहीं एम कह्युं छे के वर्तमानमां अन्यायी होय तेवा जीवने पण पूर्वना
पुण्यने लीधे धननी प्राप्ति थाय छे, अने अपथ्य आहारनुं सेवन करवा छतां पूर्वना पुण्यने लीधे शरीर नीरोग रहे छे.)
* (गा.३प७) जलधिगतोपि न कश्चित्कश्चित्तटगोपिरत्नमुपयाति।
पुण्यविपाकान्मर्त्यो मत्वेति विमुच्यतां खेदः।।
[अर्थः] कोई मनुष्य तो समुद्र के अंदर जाकर भी रत्न नहि पाता और कोई उसमें बिना जाये तटपर बैठा
बैठा ही रत्न पा लेता है इसलिये यह सब महिमा पाप और पुण्य की जानकर मनुष्यों को खेद छोड़ देना चाहिये।
* (गा. ३प९) जिनका भाग्य सीधा है उनका द्वीप, समुद्र, पर्वतों की शिखर, दिशाओं के अंत और कुए के
तल में गिरा हुआ भी रत्न मिल जाता है और जिनका वह भाग्य टेडा है उनका हाथ पर रखा हुआ भी नष्ट हो जाता
है।।
* (गा. ३६०)
विपदोपि पुण्यभाजां जायंते संपदोत्र जन्मवतां।
पापविपाकाद्विपदो जायंते संपदोऽपि सदा।।
[अर्थः] पुण्य के विपाक से इस संसार में जीवों पर आई हुई विपत्तियां भी संपत्तियां हो जाती हैं और पाप के
प्रभाव से संपत्तियां भी विपत्तियां बन जाती हैं।
* (गा. ३६६)
धनधान्यकोश निचयाः सर्वे जीवस्य सुखकृतः
संति भाग्येनेति विदित्वा विदुषा न विधीयते खेदः।।
[अर्थः] जीव को संसार में जितने भी धन धान्य खजाने आदि सुखदायक पदार्थ हैं वे सब भाग्य के अनुकूल
रहने पर ही होते हैं – ऐसा जानकर विद्वान लोग उसमें खेद नहि करते।।
* (गा. ३७०)
दयित जनेन वियोगं संयोगं खल जनेन जीवानां।
सुख–दुःखं च समस्तं विधिरेव निरकुशः कुरुते।।
[अर्थः] संसार में जीवों का इष्ट के साथ वियोग, अनिष्ट के साथ संयोग और सुख–दुःख की प्राप्ति कराना आदि
सब निर्भय रीति से प्रवर्तनेवाले दैव के हाथ में है। दैव ही विना किसी भय के इन सब बातों को करता है। [दैव–पूर्वकर्म]
* (गा. ३७२)
नश्यति हस्तादर्थः पुण्यविहीनस्य देहिनो लोके।
दूरादेत्य करस्थं भाग्ययुनो जायते रत्नं।।
[अर्थः] जो पुरुष भाग्यहीन है –जिसको पूर्वोपार्जित पापकर्म उदय में आ फल दे रहा है उसके हाथ में आया हुआ
भी धन नष्ट हो जाता है और जो पुण्यसहित है –सौभाग्यवाला है उसके दुष्प्राप्य और दूरवर्ती भी धन हाथमें आ जाता है।।
[–ए प्रमाणे ‘सुभाषित रत्नसंदोह’ना ‘दैव अधिकार’मां स्पष्टपणे विस्तारथी वर्णन कर्युं छे के जीवोने लक्ष्मी
वगेरेनो संयोग–वियोग थवो ते दैवनुं एटले के पूर्वकृत पुण्य–पापनुं ज फळ छे.)
श्री महापुराण (–आदिपुराण)ना पांचमां सर्गमां भगवत् जिनसेनाचार्य कहे छे के––
[श्लोक १४] इतः श्रृणु खगाधीश वक्ष्ये श्रेयोऽनुबन्धि ते।
वैद्याधरीमिमां लक्ष्मी विद्धि पुण्यफलं विभो।।