Atmadharma magazine - Ank 118
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २००९ : आत्मधर्म–११८ : २१७ :
[१९१] पुण्य के बिना चक्रवर्ती के समान अनुपम रूप–
सम्पदा कैसे मिल सकती है? पुण्य के बिना वैसा
अमेद्य शरीर का बंधन कैसे मिल सकता है?
[१९२] पुण्य के बिना अतिशय उत्कृष्ट निधि और रत्नों
की ऋद्धि कैसे प्राप्त हो सकती है? पुण्य के बिना
वैसे हाथी, घोडा आदि का परिवार कैसे मिल
सकता है?
[१९३] पुण्य के बिना वैसे अन्तःपुर का वैभव कैसे मिल
सकता है? पुण्य के बिना दस प्रकार के
भोगोपभोग कहाँ मिल सकते हैं?
[१९४] पुण्य के बिना द्वीप और समुद्रो की उल्लंघन
करनेवाली वैसी आज्ञा कैसे प्राप्त हो सकती है?
पुण्य के बिना दिशाओं को जीतनेवाली वैसी
विजयलक्ष्मी वहां मिल सकती है?
[१९५] पुण्य के बिना देवताओं को भी नम्र करनेवाला
वैसा प्रताप कहां प्राप्त हो सकता है? पुण्य के
बिना समुद्र को उल्लंघन करनेवाला वैसा उद्योग
कैसे मिल सकता है?
[१९६] पुण्य के बिना तीनों लोकों को जीतनेवाला वैसा
प्रभाव कहां हो सकता है? पुण्य के बिना वैसा
हिमवान् पर्वत को विजय करने का उत्सव कैसे
मिल सकता है?
[१९७] पुण्य के बिना हिमवान् देव के द्वारा किया हुआ
वैसा अधिक सत्कार कहां मिल सकता है? पुण्य
के बिना नदियों की अधिष्ठात्री देवियों के द्वारा
किया हुआ वैसा अभिषेक कहां हो सकता है?
[१९८] पुण्य के बिना विजयार्द्ध पर्वत को जीतना कैसे हो
सकता है? पुण्य के बिना अन्य मनुष्यों को दुर्लभ
वैसे रत्नों का लाभ कहां हो सकता है?
[१९९] पुण्य के बिना समस्त भरतक्षेत्र में वैसा सुन्दर
विस्तार कैसे हो सकता है? –अथवा पुण्य के
बिना कहां ऐसा धन का आगमन जातैं सकल
भरतक्षेत्र का हासिल आवै? और पुण्य के बिना
दिशाओं के किनारे को उल्लंघन करनेवाली वैसी
कीर्ति कैसे हो सकती है?
[२००] इसलिये हे पंडित जन! चक्रवर्ती की विभूति को
पुण्य के उदय से उत्पन्न हुई मानकर उस पुण्य
का संचय करो जो कि समस्त सुख और
सम्पदाओं की दुकान के समान है।।
[––ए प्रमाणे धन–राज्य वगेरे बाह्य वैभवरूप
सामग्रीनी प्राप्ति ते पुण्यनुं फळ छे––ए वात पुराणोमां ठेरठेर
स्पष्टपणे वर्णवी छे
]
* पंचाध्यायीमां कहे छे के ––
‘सद्वेद्योदयभावान् गृहधनधान्यं कलत्रपुत्रांश्च×××
××× अर्थात्–सातावेदनीय कर्मना निमित्तथी जेमनो
सद्भाव छे एवा घर, धन, धान्य, स्त्री, पुत्र वगेरे×××
(अध्याय १ गा. प८१)
* ‘एको दरिद्र एको हि श्रीमानिति च कर्मणः।।
कोई दरिद्री अने कोई धनवान होय छे तेथी एवी
दशानी विचित्रताथी कर्मोनुं अस्तित्व सिद्ध थाय छे.’
(अध्याय २ गा. प०)
* ‘यशः श्री सुतमित्रादि सर्वं कामयते जगत्।
नास्य लाभोऽभिलाषेपि विना पुण्योदयात्सतः।। ४४०।।
(अर्थ :) सर्वे जगतवासी–अज्ञानी जीवो यश,
संपत्ति पुत्र अने मित्रादिनी ईच्छा करे छे परंतु पुण्यना
सद्भाव विना, ते जीवोने तेनी अभिलाषा होवा छतां पण
ईष्टनी सिद्धि थती नथी.’
(अध्याय २ गा. ४४०)
‘जरा मृत्यु दरिद्रादि न हि [नापि] कामयते जगत
तत्संयोगो बलादस्ति सतस्तत्राऽशुभोदयात्।। ४४१।।
(अर्थ :) जगत वृद्धावस्था, मृत्यु अने
दारिद्रादिकताने ईच्छतुं नथी, परंतु संसारमां जीवोने
अशुभोदयना सद्भावथी, अभिलाषा नहीं होवा छतां पण
ए वृद्धावस्थादिनो संयोग थाय छे.’
(अध्याय २ गा. ४४१)
* सत्तास्वरूपमां कहे छे के ––
‘जीवन–मरण, सुख–दुःख, आपत्ति–संपत्ति, रोग–
निरोगिता, लाभ–अलाभ इत्यादि तो जैनी वा अन्यमति
सब के अपने अपने पूर्वोपार्जित कर्मोदय के आश्रित
सामान्य–विशेषरूप से होता है।
[पृ. १७]