Atmadharma magazine - Ank 118
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARMA Regd. No. 4787
सम्यग्दर्शन माटे आत्मार्थीनो उल्लास अने
निर्विकल्प अनुभूति
सम्यग्दर्शन सन्मुख थयेला जिज्ञासु जीवने पोतानुं
कार्य करवानो घणो हर्ष होवाथी अंतरंग प्रीतिथी तेनो
उद्यम करे छे. पोतानुं कार्य एटले सम्यग्दर्शन; सम्यग्दर्शन
करवुं ए ज तेना जीवननुं ध्येय छे –ए ज तेना जीवननुं
साध्य छे तेथी सम्यग्दर्शन माटे उल्लासपूर्वक निरंतर
प्रयत्न करे छे, तेमां प्रमाद करतो नथी. पोतानुं आत्मकार्य
साधवा माटे आत्मार्थीनां परिणाम निरंतर उल्लासमान
होय छे. सम्यग्दर्शन सिवाय बीजुं कार्य पोतानुं भासतुं
नथी एटले तेमां रस नथी, निज कर्तव्यने एक क्षण पण
अंतरथी विसारतो नथी. –आवो जीव अल्पकाळमां
सम्यग्दर्शन पामे छे.
तत्त्वविचार करीने पण ज्यारे अंतरमां
स्वरूपसन्मुख थाय त्यारे ज निर्विकल्प सम्यग्दर्शन थाय
छे. मात्र तत्त्वविचार ते ज कांई सम्यग्दर्शन नथी.
सम्यग्दर्शन क््यारे थयुं कहेवाय? के ज्यारे स्वरूपसन्मुख
थईने निर्विकल्प अनुभूति थाय–अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन
थाय –त्यारे ज यथार्थ सम्यग्दर्शन थयुं कहेवाय, ते ज
यथार्थ प्रतीति छे; ते सिवाय यथार्थ प्रतीति कहेवाय नहि.
तत्त्वविचार पछी अंतर्मुख थईने स्वरूपनी निर्विकल्प
अनुभूति न करे त्यां सुधी जीव सम्यग्दर्शन पामतो नथी.
अंतरमां चैतन्यस्वभावनो परम महिमा करीने तेनी
निर्विकल्प अनुभूति करवी–प्रत्यक्ष स्वसंवेदन करवुं––ते ज
सम्यग्दर्शन छे.
–प्रवचनमांथी
प्रकाशक :– श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, वती जमनादास माणेकचंद रवाणी, वल्लभ–विद्यानगर, (गुजरात)
मुद्रक :– जमनादास माणेकचंद रवाणी, अनेकान्त मुद्रणालय: वल्लभ–विद्यानगर, (गुजरात)