Atmadharma magazine - Ank 118
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २००९ : आत्मधर्म–११८ : २२३ :
थाकयानो विसामो
हवे आ चोराशीना अवतारनो जेने भय लाग्यो होय
एवो भयभीत जीव अंतरमां आत्माना शरणने शोधे. ते एम
विचारे के अरेरे! शुं आ भव ज करवानो मारो स्वभाव हशे के
भवरहित शांति क्यांय हशे!! आ भवभ्रमणना थाक
उतारवानो विसामो क्यां हशे! आम, जेने अंतरमां भवनो
थाक लाग्यो होय ते विसामो शोधे...
श्री गुरुदेव तेने परम करुणाथी कहे छे के बापु! जो तुं
भवभ्रमणथी थाक्यो हो तो तारा आत्मामां शरणने शोध.
तारा आत्माने ओळखीने तेनुं ज शरण कर, ए सिवाय
बहारमां बीजुं कोई तने शरणरूप थाय तेम नथी. आत्माने
ओळखीने सम्यग्दर्शन करवुं ते ज थाकयानो विसामो छे.
–प्रवचनमांथी.
–अपूर्व... भावना––
हे भाई! तुं भावना तो स्वभावनी कर. स्वभावनी
भावना करवा माटे पहेलांं यथार्थ वस्तुस्थिति नक्की कर. यथार्थ
वस्तुने ओळख्या वगर मिथ्यात्वादिक भावोने ज अनादिकाळथी
भाव्या छे, पण चैतन्यस्वभावनी सन्मुख थईने सम्यग्दर्शनादि
भावोने कदी सेव्या नथी. एकवार पण जो सम्यग्दर्शनादि
भावोने सेवे तो अल्पकाळमां मोक्ष थया विना रहे नहीं. परम
चैतन्यस्वभावनी भावनाथी जे सम्यग्दर्शनादि पवित्र भावो
प्रगटे ते ज धर्म अने कल्याणरूप छे.
मिथ्यात्व–आदिक भावने चिरकाळ भाव्या छे जीवे;
सम्यक्त्व–आदिक भाव रे! भाव्या नथी पूर्वे जीवे. ९०