: २०६ : आत्मधर्म–११८ : श्रावण : २००९ :
[पृ. १९५] “जिसके असाताका उदय होगा वह दुःख और जिसके साताका उदय होगा वह सुख भोगेगा।
दूसरा जीव मात्र बाहरी निमित्तकारण हो जाय तो हो जाय, मूलकारण कर्मोका उदय है।
श्री प्रवचनसार गा. ७२ नी टीका तथा भावार्थमां कह्युं छे के ––
“यदि शुभोपयोगजन्यसमुदीर्णपुण्यसंपदस्त्रिदशादयोऽशुभोपयोगजन्यपर्यागतपातकापदो वा नारकादयश्च ×××’
“ (अर्थ :) जो शुभोपयोगजन्य उदयगत पुण्यनी संपदावाळा देवादिक (अर्थात् शुभोपयोगजन्य पुण्यना उदयथी
प्राप्त थती ऋद्धिवाळा देवो वगेरे) अने अशुभोपयोगजन्य उदयगत पापनी आपदावाळा नारकादिक ×××”
(भावार्थ :) “शुभोपयोगजन्य पुण्यना फळरूपे देवादिकनी संपदाओ मळे छे अने अशुभोपयोगजन्य पापना फळरूपे
नारकादिनी आपदाओ मळे छे.’
श्री प्रवचनसार १९३मी गाथानी टीकामां कहे छे के :––
आत्माने देह–धनादिक परवस्तुनो संयोग हेतुवाळो अने परतःसिद्ध छे; देह–धनादिकनी उत्पत्तिमां कांई पण निमित्त
होय छे तेथी तेओ परतःसिद्ध छे.
* श्री नियमसारना २९मा कलशमां कहे छे के :––
“नानानूननराधिनाथविभवानाकर्ण्य चालोक्य च
त्वं क्लिश्नासि मुधात्र किं जडमते पुण्यार्जितास्तेननु।
तच्छक्तिर्जिननाथपादकमलद्वन्दार्चनायामियं
भक्तिस्ते यदि विद्यते बहुविधा भोगाः स्युरेते त्वयि।।
(अर्थ :) नराधिपतिओना अनेकविध महा वैभवोने सांभळीने तथा देखीने, हे जडमति! तुं अहीं फोगट कलेश केम
पामे छे! ते वैभवो खरेखर पुण्यथी प्राप्त थाय छे. ते (पुण्योपार्जननी) शक्ति जिननाथना पादपद्म युगलनी पूजामां छे; जो
तने ए जिनपादपद्मनी भक्ति होय तो ते बहुविध भोगो तने (आपोआप) हशे.’
वळी गाथा १प७नी टीकामां कहे छे के–
‘कश्चिदेको दरिद्रः क्वचित् कदाचित् सुकृतयोदयेन निधिंलब्ध्वा ×××’ अर्थात् कोई एक दरिद्र मनुष्य कवचित
कदाचित् पुण्योदयथी निधिने पामीने ×××’ [–लक्ष्मी तथा वैभव पुण्योदयथी प्राप्त थाय छे–एम अहीं स्पष्ट कह्युं छे.)
श्री पंचास्तिकायमां कहे छे के –
“×××व्यवहारेण, शुभाशुभकर्म्मसंपादितेष्टानिष्टविषयाणां भोक्तृत्वाद्भोक्ता” ––“व्यवहारसे, शुभ–अशुभ कर्मके
उदयसे उत्पन्न जो इष्ट–अनिष्ट विषय तिनका भोक्ता है।” (गाथा २७ टीका)
[अहीं बाह्य ईष्ट–अनिष्ट सामग्रीने शुभाशुभकर्मथी संपादित कही छे.)
“व्यवहारेणेष्टाविषयाणां निमित्तमात्रत्वात्पुद्गलकायाः सुखदुःखरूपं फलं प्रयच्छन्तिं। ××× “व्यवहारेण
द्रव्यकर्मोदयापादितेष्टानिष्टविषयाणां भोक्तृत्वात्तथाविधं फलं भुंजते।” (गाथा ६७ टीका)
हिंदी अर्थ ––व्यवहारकर शुभअशुभ जो बाह्य पदार्थ हैं उनको भी कर्म निमित्तकारण हैं, सुख–दुःख फलको देते
हैं। ××× जीव, व्यवहारकर द्रव्यकर्मके उदयसे प्राप्त हुए जो शुभअशुभ पदार्थ तिनको भोगते हैं।
[अहीं बाह्य ईष्ट–अनिष्ट सामग्रीनी प्राप्तिमां शुभ–अशुभ कर्मने निमित्त कह्युं छे.)
श्री रयणसारनी २९मी गाथामां कहे छे के––
दाणीणं दालिद्दं लोहीणं किं हवेइ महासिरियं।
उहयाणं पुव्वज्जियकम्मफलं जाव होइ थिरं।।
अर्थः–– दानी पुरुषोंको दरिद्रता और लोभी पुरुषोंको महान विभवकी प्राप्ति होना अपने अपने पूर्वजनितकर्मोंका
फल है। इसलिये भव्य जीवोंको चाहिए कि जबतक पूर्वकर्मोंके फलका उदय है तबतक अपनी अवस्था पर हर्ष या ग्लानि
नहि करे और न यह विचार करे कि मैं धर्मसेवन करते हुये भी दरिद्र क्यों हो गया और पापी पुरुष धनवान क्यों हो गये?
श्री परमात्मप्रकाशमां कहे छे के––
मं पुणु पुण्णईं भल्लाईं णाणिय ताईं भणंति।
जीवहँ रज्जइँदेवि वहु दुक्खइँ जाइँ जणंति।।५७।।
[अर्थः] फिर वे पुण्य भी अच्छे नहि हैं, जो जीवको राज देकर शीघ्र ही नरकादि दुःखोंको उपजाते हैं, ––
ऐसा ज्ञानी पुरुष कहते हैं।।
[टीकाः] “पुण्यकर्माणि जीवस्य राज्यानि दत्त्वा लघु शीघ्रं