Atmadharma magazine - Ank 118
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २००९ : आत्मधर्म–११८ : २०५ :
* गाथा १३२ थी १३६ नी टीकामां जयसेनाचार्य कहे छे के––
‘उदयागतेषु द्रव्यप्रत्ययेषु यदि जीवः स्वस्वभावं मुक्त्वा रागादिरूपेण भावप्रत्ययेन परिणमति तदा बंधो
भवतीति नैवोदयमात्रेण घोरोपसर्गेपि पांडवादिवत्’ (हिंदी समयसार पा. १९६)
(बहारनो घोर उपसर्ग कर्मना उदयथी थाय छे एम आ कथनथी सूचित थाय छे.)
गाथा १८४–प नी टीकामां जयसेनाचार्य कहे छे के––
‘तीव्र परीषहोपसर्गेण कर्मोदयेन संतप्तोऽपि×××
[अहीं बहारमां तीव्र परीषह अने उपसर्ग कर्मना उदयथी थवानुं कह्युं छे.) (हिंदी समयसार पा. २६२)
श्री समयसार गा. २२प मां कहे छे के––
एमेव जीवपुरिसो कम्मरयं सेवदे सुहणिमित्तं।
तो सो वि देदि कम्मो विविहे भोगे सुहुप्पाए।।२२५।।
[हिंदी अर्थः] इसी तरह जीव नामा पुरुष सुख के लिये कर्मरूपी रजको सेवन करता है तो वह कर्म भी उसे
सुख के उपजानेवाले अनेक प्रकार के भोगों को देता है।
गाथा २२४ थी २२७ नी टीकामां जयसेनाचार्य कहे छे के––
‘कोऽपि जीवोऽभिनवपुण्यकमंनिमित्तं भोगाकांक्षानिदानरूपेण शुभकर्मानुष्ठानं करोति सोऽपि
पापानुबंधिपुण्यराजा कालांतरे भोगान् ददाति।’ (पृ. ३१प)
‘पुण्यानुबंधि पुण्यकमं भवांतरे तीर्थंकर–चक्रवर्ती–बलदेवाद्यभ्युदयरूपेणोदयागतमपि×××(पृ. ३१६)
[अहीं पुण्य बाह्य सामग्री आपे छे–एम कह्युं छे.]
गाथा २७प नी टीकामां कहे छे के––
... अहमिंद्रादिपदवीकारणत्वादिति मत्वा भोगाकांक्षारूपेण पुण्यरूपं धर्मं×××(हिंदी समयसार पृ. ३६७)
[अभव्य जीव जे धर्मने श्रद्धे छे तेनुं वर्णन करतां अहीं कह्युं छे के ते अहमिंद्रादि पदवीना कारणरूप एवा पुण्यरूप
धर्मने श्रद्धे छे तथा आचरे छे.)
गाथा ३२४ थी ३२७ नी टीकामां जयसेनाचार्य कहे छे के––
“कोऽपि जीवः पूर्वं मनुष्यभवे जिनरूपं गृहीत्वा भोगाकांक्षानिदानबंधेन पापानुबंधि पुण्यं कृत्वा स्वर्गे समुत्पद्य
तस्मादागत्य मनुष्यभवे त्रिखंडाधिपतिरर्द्धचक्रवर्ती भवति...
[अहीं अर्धचक्रवर्तीपणाना वैभवनी प्राप्तिमां पुण्यने कारण कह्युं छे.) (हिंदी समयसार पा. ४३०)
पं. राजमल्लजी समयसार–कलशटीकामां कहे छे के––
[पृ. १६३] ‘कर्म के उदय करै छे नानाप्रकार सामग्री×××
[पृ. १६४] ‘कर्मजनित सामग्री ×××
[पृ. १६६] ‘कर्म कहतां कर्म के उदयजनित अनेकप्रकार भोगसामग्री ×××
[पृ. १७१] ‘तत्फल कहतां कर्मजनित सामग्री ×××
[पृ. १७२] “जेतो कांइ साता असातारूप कर्म को उदय तिहितैं जो कुछ नीका विषय अथवा अनिष्ट
विषयरूप सामग्री सो सम्यग्द्रष्टि के सर्व अनिष्ट रूप छे। कोई जीव को अशुभ कर्म के उदय रोग, शोक, दारिद्र आदि
होइ छे, जीव छोडिवाको घनो ही करे छे, परि अशुभ कर्म के उदय नहि छूटै छे,
××× तथा सम्यग्द्रष्टि जीव को पूर्व
अज्ञान परिणाम करि बांध्या छे सातारूप असातारूप कर्म तिहके उदय अनेक प्रकार विषय सामग्री होइ छे। ’
[पृ. १७५] ‘जीवको साता कर्मकै उदय अनेक प्रकार इष्ट भोग सामग्री छे, असाता कर्मकै उदय अनेक प्रकार
रोग, शोक, दरिद्र, परीषह, उपसर्ग इत्यादि अनिष्ट सामग्री होइ छे ×××
[पृ. १७८] “जो साता असाता कर्मकै उदय सुख–दुःखरूप वेदना सो जीव को स्वरूप न छे तिहितैं सम्यग्द्रष्टि
जीव को रोग उपजिवाकी भय न होइ। ’
[पृ. १९५] ‘सर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीय–
कर्मोदयान्मरणजीवित दुःखसौख्यम्।’
(समयसार कलश १६८)
‘मरण’ कहतां प्राणघात, ‘जीवित’ कहतां प्राणरक्षा, ‘दुःखसौख्यं’ कहतां इष्ट–अनिष्ट संयोग इसो जो ‘सर्वं’
कहतां सर्व जीवराशि कहु होइ छे, जावंत ‘सदा एव’ कहतां सर्व काल होइ छे, ‘नियतं’ कहतां निहींचासों,
‘स्वकीय कर्मोदयात् भवति’ कहतां जैनै जीव आपणा परिणाम विशुद्ध अथवा संक्लेशरूप तिहिकरि पूर्वही बांध्या छे
जे आयुः कर्म्म अथवा साताकर्म्म अथवा असाताकर्म्म तिहि कर्म के उदयकरि तिहि जीवको मरण अथवा जीवन
अथवा दुःख अथवा सुख होइ छे इसो निहचो छे, इन बात मांहे धोखो कांइ नाहीं।”