: २०४ : आत्मधर्म–११८ : श्रावण : २००९ :
वाला दूसरा कोई कर्म नहीं है, क्योंकि वैसा कोई कर्म पाया नहि जाता।
[अहीं बाह्य सुद्रव्योना संपादनमां सातावेदनीयने कारण कह्युं छे. अने बहारमां सुख–दुःखना कारणरूप द्रव्योनुं
संपादन वेदनीयकर्मना उदयथी ज थाय छे एम सिद्ध कर्युं छे.)
श्री गोम्मटसारनी पीठिकामां पृ. १४मां लख्युं छे के :–
“रे पापी! धन किछू अपना उपजाया तौ न हो है। भाग्यतैं हो है, सो ग्रंथाभ्यास आदि धर्म साधनतैं जो पुण्य
निपजै ताहीका नाम भाग्य है। बहुरि धन होना है तो शास्त्रभ्यास कीए कैसैं न होगा? अर न होना हैं तौ शास्त्राभ्यास न
कीए कैसैं होगा? तातैं धन का होना, न होना तौ उदयाधीन है।”
[––अहीं स्पष्ट कह्युं छे के धननुं होवुं–न होवुं ते उदयाधीन छे.]
वळी त्यां ज पृ. १पमां लख्युं छे के :–
विषयजनित जो सुख है सो दुःख ही है। जातैं विषयसुख है सो पर निमित्ततैं हो है। पहिले पीछैं तत्काल
आकुलता लिए है, जाके नाश होने के अनेक कारण पाइए है, आगामी नरकादि दुर्गतिकौं प्राप्त करणहारा है, ऐसा है
तौ भी तेरा चाह्या मिलै नाहीं, पूर्व पुण्यतैं हो है तातैं विषम है। ’
[––अहीं विषयजनित सुखनी सामग्री पूर्व पुण्यथी थाय छे एम स्पष्ट कह्युं छे.]
श्री गोम्मटसार गा. १प२ तथा तेनी टीकामां कहे छे के :–
“जातिजरामरणभयाः संयोगवियोगदुःखसंज्ञाः।
रोगादिकाश्च यस्यां न संति सा भवति सिद्धगतिः।।१५२।।”
“कर्म वशाज्जीवस्य×××क्लेशकारणानिष्टद्रव्यसंगमः संयोगः। सुखकारणेष्टद्रव्यापायो वियोग एतेभ्यः
समुत्पन्नानि आत्मनो निग्रहरूपाणि दुःखानि। ×××रोगादिकाश्च–रोग–मानभंगवधबंधादिविविधवेदनाश्च यस्यां गतौ न
संति तत्तत्कारणकृत्स्नकर्मविप्रमोक्षे सति न जायंते सा सिद्धगतिः” (जीवकांड पृ. ३७प)
[अहीं कह्युं के कर्मने वश जीवने कलेशना कारणरूप अनिष्टद्रव्यनो संयोग तथा सुखना कारणरूप ईष्ट द्रव्यनो वियोग थाय छे;
अने सिद्धदशामां रोग–मानभंग–वध–बंधनादिना कारणरूप कर्मनो क्षय थई जवाथी रोगादि नथी; आ रीते अहीं रोगादिक अनिष्ट
सामग्रीनो संयोग थवामां तेमज ईष्टनो वियोग थवामां कर्मनुं कारणपणुं बताव्युं छे.)
‘दरिद्री लक्ष्मीवान इत्यादिक विचित्रता कर्म बिना नाहीं संभवै है। ’।
[श्री गोम्मटसार कर्मकांड गा. २नी टीका : पानु ३]
[दरिद्रता अने लक्ष्मीवानपणुं ईत्यादिक विचित्रता थवामां कर्म निमित्त छे––एम अहीं जणाव्युं छे.)
श्री गोम्मटसार कर्मकांड पा. ९०२–९०३ नी फुटनोटमां नीचे मुजब कह्युं छे :–
[१] “××× सयोगकेवलिनींद्रियविषयसुखकारण सातवेदनीयबंध उदयात्मकः स्यात्×××”
[अहीं साता वेदनीयने ईन्द्रियविषयसुखनुं कारण कह्युं छे.)
[२] “मोहनीयोदयबलाधानरहितसातवेदोदयस्य बहिर्विषय संनिधीकरणसामर्थ्यमेव स्यान्न तद्विषयसुख–
संवेदनोत्पादक सामर्थ्य।”
[अहीं बाह्यविषयोना संनिधिकरणमां सातावेदनीयना उदयनुं सामर्थ्य बताव्युं छे.)
[३] “सातवेदनीयोदय संजनितेंद्रियविषयकवलाहारादिभ्यो”
[अहीं ईन्द्रियविषयोने सातावेदनीयना उदयजनित कह्या छे.)
श्री गोम्मटसार–कर्मकांड गाथा ८१० मां कहे छे के–
“प्राणवधादिषु रतो जिनपूजामोक्षमार्ग विघ्नकरः।
अर्जयति अंतरायं न लभते यदीप्सितं येन।।”
“जो जीव आपकरि वा अन्यकरि करी एकेन्द्री आदि प्राणीनिकी हिंसा तीहिंविषैं प्रीतिवंत होइ, जिनेश्वरकी पूजा
अर रत्नत्रय की प्राप्तिरूप मोक्षमार्ग तिसविषैं आपकैं वा अन्य जीवकैं विघ्न करै सो जीव अंतराय कर्म उपजावे हैं। जाके
उदय आवनेकरि वांछित न पावै है।
[अहीं वांछित प्राप्ति न थाय तेमां अंतरायकर्मना उदयने निमित्त कह्युं छे.)
श्री समयसार गा. ८४नी टीकामां कहे छे के––
‘पुद्गलकर्मविपाकसंपादितविषयसन्निधि×××’
[हिंदी] ‘पुद्गलकर्म के उदयकर उत्पन्न की गई जो विषयों की समीपता×××’ (हिंदी समयसार पृ. १३९)