सुहदुक्खणिबं धणकम्माभावा। सुह–दुक्खविवज्जिओ चेव होदि त्ति चे ण, जीवदव्वस्स णिस्सहावत्तादो अभावप्पसंगा।
अह जइ दुक्खमेव कम्मजणियं, तो सादावेदणीय–कम्माभावो होज्ज, तरस फलाभावादो त्ति?
उप्पज्जदि, तस्स जीवसहावत्तादो फलाभावा। ण सादावेदणीयाभावो वि, दुख्खुवसमहेउसुदव्वसंपादणे तस्स
वावारादो। एवं संते सादा–वेदणीयस्स पोग्गलविवाइतं होइ त्ति णासंकणिज्जं, दुक्खुव–समेणुप्पण्ण सुवत्थियकणस्स
दुक्खाविणाभाविस्स उवयारेणेव लद्ध–सुहसण्णस्स जीवादो अपुधमूदस्स हेदुत्तणेण सुत्ते तस्स जीवविवा
इत्तसुहहेदुत्ताणमुवदेसादो। तो वि जीव–पोग्गलविवाइत्तं सादावेदणीयस्स पावेदि त्ति चे ण, इठ्ठत्तादो। तहोवएसो
णत्थि त्ति चे ण, जीवस्स अत्थित्तण्णाहाणुववत्तीदो तहोवदेसत्थित्तसिद्धीए। ण च सुह–दुक्खहेउदव्वसं पादयमण्णं
कम्ममत्थि त्ति अणुवलंभादो।’
गया है। यदि कहा जाय कि कर्मोंके नष्ट हो जाने पर जीव सुखसे और दुखसे रहित ही हो जाता हैं, सो कह
नहीं सकते, क्योंकि, जीवद्रव्य के निःस्वभाव हो जानेसे अभावका प्रसंग प्राप्त होता हैों अथवा, यदि दुखको ही
कर्मजनित माना जाय तो सातावेदनीयकर्म का अभाव प्राप्त होगा, क्योंकि, फिर उसका कोई फल नहीं रहता हैं?
माना जाय तो क्षीणकर्मा अर्थात् कर्मरहित जीवों के भी दुःख होना चाहिए, क्योंकि, ज्ञान और दर्शन के समान कर्म
के विनाश होने पर दुःख का विनाश नहीं होगा। किन्तु सुख कर्म से नहीं होता है, क्योंकि, वह जीव का स्वभाव
है, और इसलिये वह कर्म का फल नही है। सुख को जीव का स्वभाव मानने पर सातावेदनीय कर्म का अभाव भी
प्राप्त नहीं होता, क्योंकि, दुःख–उपशमन के कारणभूत सुद्रव्यों के सम्पादन में सातावेदनीय कर्म का व्यापार होता
है। इस व्यवस्था के मानने पर सातावेदनीय प्रकृति के पुद्गलविपाकित्व प्राप्त होगा, ऐसी भी आशंका नहीं करना
चाहिये, क्योंकि दुःख के उपशम से उत्पन्न हुए, दुःख के अविनाभावी उपचार से ही सुखसंज्ञा को प्राप्त और जीव
से अपृथग्भूत ऐसे स्वास्थ्य के कणका हेतु होने से सूत्र में सातावेदनीय कर्म के जीवविपाकित्व का और सुख–
हेतुत्व का उपदेश दिया गया है। यदि कहा जाय कि उपर्व्युंक्त व्यवस्थानुसार तो साता वेदनीय कर्म के
जीवविपाकीपना और पुद्गलविपाकीपना प्राप्त होता है, सो भी कोई दोष नहीं, क्योंकि, यह बात हमें इष्ट हैं। यदि
कहा जाये कि उक्त प्रकार का उपदेश प्राप्त नहीं हैं, सो भी नहीं, क्योंकि, जीव का अस्तित्व अन्यथा बन नहीं
सकता है, इसलिए उस प्रकार के उपदेश के अस्तित्व की सिद्धि हो जाती है। सुख और दुःख के कारणभूत द्रव्यों
का सम्पादन करनेवाला दूसरा कोई कर्म नहीं है, क्योंकि वैसा कोई कर्म पाया नहीं जाता।”