ATMADHARMA Regd No. B, 4787
“आत्मधर्म” ना दस वर्षनी पूर्णता–प्रसंगे....
नम्र निवेदन
आजे आ अंकनी साथे आत्मधर्मना दस वर्ष पूरा थाय छे. ‘आत्मधर्म’ एटले
परम पूज्य गुरुदेवश्रीनी पावन वाणीमां वहेतो जैनसिद्धांतनो पुनीतप्रवाह. आ दस
वर्षमां आत्मधर्म द्वारा जे विपुल–उच्च साहित्य अपायुं छे ते, पू. गुरुदेवश्रीनी भव्यजीवोने
अमूल्यभेट छे. पू. गुरुदेवश्रीनी वाणी ज आ आत्मधर्मनी जननी छे. जेओ पू.
गुरुदेवश्रीनी वाणीनुं श्रवण–मनन करता हशे तेओ जाणता ज हशे के गुरुदेवना
शब्देशब्दमां आत्मिक आनंदना झरणां छे.... उल्लासनी प्रेरणा छे.... आत्मकल्याणना
भणकार छे.... परमसत्यनी घोषणा छे. जेम तबलाना ताल नृत्यकारना पगने उछाळे छे
तेम गुरुदेवनी वाणीनो नाद भव्यजीवोना आत्मिक उल्लासने उछाळनार छे.
–परमपूज्य गुरुदेवनी आवी कल्याणकारी वाणी झीलीने आत्मधर्ममां आपवानुं,
अने ए रीते गुरुदेवनी पवित्र वाणीनी सेवा करवानुं जे सौभाग्य मने मळ्युं ते मने
अतिशय लाभनुं कारण थयुं छे. पू. गुरुदेवश्रीनी वाणीमांथी मे जे कांई झील्युं छे ते
उल्लास अने भक्तिपूर्वक झील्युं छे.–आम छतां अत्यारे सुधीना दस वर्षमां मारी
बालबुद्धिने लीधे जे कांई भूलो थई होय–अविनय, के अपराध थयो होय–ते सर्वेनी, परम
पूज्य गुरुदेव तेम ज श्रुतमाता मने बाळक जाणीने क्षमा करो!
आत्मधर्मनी अभिवृद्धि माटे पू. बेनश्री जी तरफथी पण वारंवार चीवटपूर्वक मने
प्रोत्साहन मळ्युं छे, तेम ज अनेकवार मार्ग बतावीने मूंझवण मटाडी छे, ते माटे
तेओश्रीनो पण उपकार छे. तेओश्री प्रत्ये पण जे कोई अपराध थयो होय तेनी
बालकभावे क्षमा मांगुं छुं.
माननीय मुरब्बी संपादक श्री रामजीभाईए पोताना विशाळ अभ्यास अने खास
कार्यशक्ति द्वारा आत्मधर्मनुं सफळ संपादन कर्युं छे, मने वारंवार उत्साहित कर्यो छे अने
दिन–रात सततपणे संभाळ करीने तेमणे ‘आत्मधर्म’ ने उछेर्युं छे;–अत्यार सुधीमां अनेक
प्रसंगोमां के कोईवार पण तेमने माराथी मनदुःख थयुं होय अगर बीजा कोईपण साधर्मी
जिज्ञासु बंधुओने माराथी मनदुःख थयुं होय तो ते बदल सर्वेनी विनम्र भावे क्षमा मागुं
छुं. अने आत्मधर्मना विकासमां अत्यारसुधी जेमनो जेमनो जे जे प्रकारे सहकार मळ्यो छे
ते सर्वेनो आभार मानुं छुं.
आ प्रसंगे सर्वे जिज्ञासुओने हृदयपूर्वक एटलु ज कहेवानुं के: आत्मधर्ममां जे कांई
आवतुं होय ते, आ काळे तीर्थंकर भगवंतोना वारसानी एक अमूल्य भेट पू. गुरुदेव
आपणने आपी रह्या छे–एम समजीने, गुरुदेव प्रत्ये अतिशय भक्ति अने अर्पणतापूर्वक
तेनुं स्वाध्याय–मनन करीने तेने अंतरमां परिणमाववानो प्रयत्न करो.
–हरिलाल जैन
प्रकाशक:– श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट वती जमनादास माणेकचंद रवाणी, वल्लभ–विद्यानगर, (गुजरात)
मुद्रक:– जमनादास माणेकचंद रवाणी, अनेकान्त मुद्रणालय: वल्ल्भ–विद्यानगर, (गुजरात)