Atmadharma magazine - Ank 122
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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चैतन्यनी साधना
अंतरनी चैतन्यवस्तु अपूर्व सूक्ष्म छे.
ते ज्ञानना उघाडथी के कषायनी मंदताथी द्रष्टिमां आवी जाय तेम नथी.
हुं समजीने बीजाने संभळावुं–एवी जेनी भावना छे तेने आत्मार्थनुं लक्ष नथी.
आ तो आत्मार्थी थईने जे पोते पोतानुं करवा मांगे तेने समजाय तेवुं छे.
ज्ञाननो उघाड ते जुदी चीज छे ने अंर्तद्रष्टिनुं परिणमन ते कंईक जुदी चीज छे.
चैतन्यवस्तुने अन्य कोईनो संबंध छे ज नहि,–तो परने संभळाववानी बुद्धिथी जे समजवा मांगे
छे तेने हजी परना संबंधनी रुचिनुं जोर छे, असंगी चैतन्य तत्त्वनी खरी रुचि तेने नथी.
चैतन्यसत्तानी मोजूदगी परने लीधे के पुण्य–पापने लीधे नथी, पण परना अने रागना संबंध
वगरनी चैतन्यसत्ता पोते स्वभावथी ज छे. आवी वर्तमान वर्तती चैतन्यसत्ताने अंर्तद्रष्टिमां
पकडवी ते ज अनादिना मिथ्यात्वनो नाश करीने अपूर्व सम्यक्त्व थवानी रीत छे.
–प्रवचनमांथी.
समकीतिनी परिणति
हुं अखंड ज्ञायक चिदानंदस्वरूप छुं–एवुं. जेने सम्यक् दर्शन थयुं होय तेने स्वभाव सन्मुख
उद्यम रह्या ज करे छे, ते स्वच्छंदपणे रागादिमां प्रवर्ततो नथी; हजी अल्प विकार थाय छे खरो पण
रुचिनी सन्मुखता तो ज्ञानानंद स्वभाव तरफ ज रहे छे, विकारनी रुचि नथी–भावना नथी, एटले
स्वच्छंदपणे विकार थतो ज नथी. जेने अंर्तद्रष्टि थई छे एवा समकीतिने तो आवी परिणति
सदाय वर्त्या ज करे छे.
– पण जेने हजी अंर्तस्वभावनी सन्मुख द्रष्टि थई नथी, विकारनी रुचि टळी नथी ने
पोताने समकीति मानीने स्वच्छंदपणे रागादिमां प्रवर्ते छे एवा निश्चयाभासी जीवने ज्ञानी
समजावे छे के अरे भाई! तारा परिणामनो तुं विवेक कर.
* * *
ज्ञानकला जिसके घट जागी, ते जगमांहि सहज वैरागी;
ज्ञानी मगन विषयसुखमांही, यह विपरीत संभवे नांही ।
* * *
प्रकाशकः श्री जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट वती जमनादास माणेकचंद रवाणी, वल्लभविद्यानगर (गुजरात)
मुद्रकः जमनादास माणेकचंद रवाणी, अनेकान्त मुद्रणालयः वल्लभविद्यानगर (गुजरात)