Atmadharma magazine - Ank 123
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARMA Regd. No. B. 4787
त्त्िर् द्य प्रि!
प्रश्नः–अमे तत्त्वनिर्णय करवानो उद्यम तो करीए, पण त्यां वच्चे
प्रतिकूळता आवी पडे तो?
उत्तरः–जेने तत्त्वनिर्णय करवो छे तेने तत्त्वनिर्णयमां प्रतिकूळता
कांई छे ज नहि. प्रथम तो संयोग आत्मामां आवतो ज नथी. संयोग तो
आत्माथी जुदो ज छे, माटे प्रतिकूळसंयोग खरेखर आत्मामां छे ज नहि.
वळी बाह्य संयोग तो सातमी नरकमां अनंतो प्रतिकूळ छे, छतां त्यां पण
अनादिनो मिथ्याद्रष्टि जीव तत्त्वनिर्णय करीने सम्यग्दर्शन पामी जाय छे.
माटे प्रतिकूळता आत्माने नडती नथी.
जेने आत्मानी जिज्ञासा जागी छे ने साचा देव–गुरु निमित्तपणे
मळ्‌या छे तेने तत्त्वनिर्णयनी अनुकूळता ज छे. साचा देव–गुरु जेने मळ्‌या
छे तेने बधी अनुकूळता ज छे. तेने कांई प्रतिकूळता छे ज नहि.
तत्त्वनिर्णय करवा माटे साचा देव–गुरु अनुकूळ छे, ने अंतरमां पोतानो
आत्मा अनुकूळ छे. जेने साचा देव–गुरु निमित्त तरीके मळ्‌या ने अंतरमां
आत्मानी रुचि थई तेने बधुं अनुकूळ ज छे, तेने बीजी कोई प्रतिकूळता
नडती ज नथी.
(वीर सवंत २४८० मागसर सुद १० ना प्रवचनमांथी)
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प्रकाशकः श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट वती जमनादास माणेकचंद रवाणी, वल्लभविद्यानगर (गुजरात)
मुद्रकः जमनादास माणेकचंद रवाणी, अनेकान्त मुद्रणालयः वल्लभविद्यानगर (गुजरात)