Atmadharma magazine - Ank 124
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: ७६ : आत्मधर्म–१२४ : महा : २०१० :
कारण मानीने तेनी जे प्रीति करे छे ते पण मिथ्याद्रष्टि छे, तेने रागनी प्रीति छे पण ज्ञान–
स्वभावनी प्रीति नथी. ज्ञानी जाणे छे के हुं तो ज्ञान ज छुं, ज्ञान ज मारो स्वभाव छे, मारा ज्ञानने
अने रागने एकपणुं नथी पण भिन्नपणुं छे, –आवा भानमां ज्ञानीने पोताना ज्ञानस्वभावनी ज
प्रीति छे ने कोईपण रागनी प्रीति नथी तेथी ते खरेखर वैरागी छे.
प्रश्न :– ज्ञानीने राग थतो होवा छतां तेने वैरागी केम कहो छो?
उत्तर :– प्रथम तो ज्ञानीने परमार्थे राग थतो ज नथी, केमके राग वखते ज्ञानी जाणे छे के हुं
तो ज्ञान छुं, मारो आत्मा ज्ञानमय छे पण रागमय नथी, राग मारा ज्ञानथी भिन्न छे. वळी
ज्ञानीने ते रागनी रुचि नथी. राग मने हितकर छे एम ज्ञानी मानता नथी, स्वभावसन्मुखनी
द्रष्टि ते वखते पण छूटी नथी, ने रागमां एकताबुद्धि थई नथी, माटे ज्ञानी खरेखर वैरागी ज छे.
अज्ञानी एकला रागने देखे छे पण ते ज वखते ज्ञानीनुं ज्ञान ते रागथी छूटुं पडीने अंतर–
स्वभावमां एकाकारपणे परिणमी रह्युं छे तेने अज्ञानी ओळखतो नथी.
अहीं तो बे पडखां पाडीने आचार्यदेव स्पष्ट वात करे छे के एक तरफ भगवान आत्मा, अने के
बीजी तरफ कर्म. कोई पण जातना कर्मने शुभरागने जे जीव मोक्षनुं साधन माने छे ते जीव कर्मथी ज
रंगायेलो छे पण आत्मानो रंग तेने लाग्यो नथी, ते रागी जीव कर्मथी बंधाय ज छे. अने जेने समस्त
शुभाशुभ कर्मोथी भिन्न चैतन्यस्वभावी आत्मानी प्रीति छे ते जीव कोई पण शुभ–अशुभकर्मने मोक्षनुं
साधन मानतो नथी एटले ते जीव वैरागी छे ने ते कर्मथी बंधातो नथी पण छूटे छे.
चैतन्यस्वभावना अवलंबनरूप जे वीतरागी ज्ञानभाव छे तेना सिवायना जेटला शुभ के
अशुभ रागभाव छे ते बधाय बंधननुं ज कारण छे; जेम पापभाव बंधननुं कारण छे तेम
पुण्यभाव पण बंधननुं ज कारण छे, माटे मोक्षमार्गमां अशुभ के शुभ समस्त कर्मोनो निषेध छे–
एम भगवान सर्वज्ञदेवे फरमाव्युं छे. शुभभाव पण बंधननुं ज कारण छे. जे बंधननुं कारण होय ते
मोक्षनुं कारण केम होय? न ज होय. आत्माना ज्ञानस्वभावनी सन्मुखताथी प्रगटेला वीतरागी
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप जे ज्ञानभाव छे ते ज मोक्षनुं खरुं कारण छे, राग ते मोक्षनुं कारण
नथी; माटे हे जीव! तुं ज्ञानस्वभावनी रुचि करीने तेमां एकाग्र था, ने रागमां एकाग्र न था एम
श्री आचार्यदेवनो उपदेश छे.
हे बंधु!
दुनियाने राजी राखवामां के दुनियाथी राजी थवामां आत्मानुं हित नथी.
एकवार तुं ज्ञानीने प्रसन्न कर अने ज्ञानीए कहेला ज्ञान–भावनी
ओळखाण कर, तेमां तारुं आत्महित छे.
–चर्चामांथी