: ७८ : आत्मधर्म–१२४ : महा : २०१० :
मोक्षमार्गी मुनिवरोने
कोनुं शरण?
अहो! अंतरमां चैतन्यस्वभावनुं महा शरण छे तेने तो
अज्ञानी जीवो ओळखता नथी, अने पुण्यमां ज मूर्छाई गया
छे. पूर्वे अनंतवार पुण्य कर्या पण ते जीवने शरणभूत थया
नथी, तेनाथी किंचित् पण मोक्षमार्ग के हित थयुं नथी. हे भाई!
हवे तारे तारा आत्मानो मोक्ष करवो होय, संसारनी चार
गतिना भ्रमणथी छूटवुं होय तो अंतरमां ज्ञाननुं शरण ले.
‘अहो! अमने अमारा स्वभावनुं ज शरण छे, पुण्यनो
विकल्प ऊठे तेने पण अमे शरणरूप मानता नथी, ते विकल्पने
पण तोडीने ज्ञानने अंतरमां एकाग्र करतां आत्माना परम–
आनंदनो अनुभव थाय छे, ते ज अमने शरण छे अने बीजा
जीवोने पण ए ज शरण छे.’ –जुओ, आ संत–मुनिओना
अंर्तअनुभवमांथी ऊठता भणकार! क्षणेक्षणे निर्विकल्प
आनंदना अनुभवमां झूलतां झूलतां वच्चे आ वाणी नीकळी
गई छे.
आत्माना ज्ञानस्वभावनी सन्मुखताथी प्रगटेला सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप वीतरागभाव ज मोक्षनुं
खरुं कारण छे, तेना सिवायना जेटला शुभ के अशुभ रागभाव छे ते बधाय बंधननुं ज कारण छे. जेम
पापभाव बंधननुं कारण छे तेम पुण्यभाव पण बंधननुं ज कारण छे, माटे मोक्षमार्गमां अशुभ के शुभ समस्त
कर्मोनो निषेध छे–एम भगवान सर्वज्ञदेवे फरमाव्युं छे.
शुभ के अशुभ समस्त कर्म जीवने बंधनुं ज कारण होवाथी ते निषेधवा योग्य छे एम आचार्यदेवे सिद्ध
कर्युं. त्यां जे जीव मात्र पुण्य–पापने ज जाणे छे परंतु पुण्य–पापथी रहित एवा ज्ञान परिणमनने जाणतो नथी,
तेने एम प्रश्न ऊठे छे के मोक्षमार्गमां पुण्य अने पाप बंनेनो निषेध कर्यो तो पछी मुनिओने शरण कोनुं रह्युं?
पाप अने पुण्य बंने छूटी जतां कोना आधारे मुनिपणुं अने मोक्षमार्ग रहेशे? तेना उत्तरमां आचार्यभगवान
कहे छे के अरे भाई! पाप अने पुण्य समस्त कर्म छूटी जतां मुनिवरो कांई अशरण थई जता नथी, परंतु ते
वखते ज्ञानस्वभावमां रमणता करतुं वीतरागी ज्ञान ज तेमने शरणभूत छे, तेओ ते ज्ञानमां लीन थईने
आत्माना परम अमृतनो अनुभव करे छे. ते वात नीचेना कळशमां कहे छे–
निषिद्धे सर्वस्मिन् सुकृतदुरिते कर्मणि किल
प्रवृत्ते नैष्कर्म्ये न खलु मुनयः संत्यशरणाः।
तदा ज्ञाने ज्ञानं प्रतिचरितमेवां हि शरणं
स्वयं विंदंत्येते परमममृतं तत्र निरताः।।१०४।।
(समयसार : पुण्य पाप अधिकार)
मोक्षमार्गमां शुभ के अशुभ आचरणरूप समस्त कर्मनो निषेध करवामां आव्यो छे; परंतु ते शुभ–
अशुभ कर्मरहित निष्कर्म अवस्था प्रवर्ततां मुनिओ कांई अशरण नथी. पुण्य–पापरहित निर्विकल्पदशा वखते
ज्ञानस्वभावमां ज एकाग्र थईने परिणमतुं ज्ञान ज ते मुनिओने परम