Atmadharma magazine - Ank 124
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: महा : २०१० : आत्मधर्म–१२४ : ७९ :
शरण छे, ज्ञानमां लीन थईने तेओ परम अमृतने अनुभवे छे. पुण्य–पापमां तो आकुळता छे तेमां
आनंदनो अनुभव नथी, पुण्य–पापरहित निर्विकल्प दशामां ज्ञानस्वभावमां एकाकार थईने
परिणमतां सिद्धभगवान जेवा अपूर्व आनंदनो अनुभव थाय छे तेने परम अमृतनी उपमा आपी
छे. अज्ञानी जीवोने पुण्यनुं ज शरण भासे छे पण अंतरमां ज्ञानस्वभाव शरणभूत छे तेनी तेने
खबर नथी. पुण्य ज मने शरण छे, पुण्य छूटतां जाणे मारामां कांई रहेशे नहि एम अज्ञानीने लागे
छे एटले पुण्यना निषेधनी वात सांभळतां ज ते भडके छे के अरे! पुण्य छोडी देशुं तो शुं रहेशे?
ज्ञानी कहे छे के अरे भाई! पुण्य–पाप छूटी जशे तो पाछळ ज्ञान–आनंदथी परिपूर्ण आखो आत्मा
रहेशे. पहेलांं तुं आवी श्रद्धा अने ज्ञान तो कर के पुण्य–पाप वगर टकी शकाय एवो मारो
चैतन्यस्वभाव छे. पुण्य–पापना आधारे ज्ञान नथी पण ज्ञानस्वभावना आधारे ज ज्ञान छे, एटले
पुण्य–पापथी छूटुं पडतां ते ज्ञान अशरण थई जतुं नथी, पण पुण्य–पापरहित थयेलुं ते ज्ञान निज
स्वभावमां ऊंडुं लीन थईने परम अमृतने अनुभवे छे. माटे मोक्षमार्गी मुनिवरोने आवुं वीतरागी
ज्ञान ज शरणरूप छे.
अहीं उग्र वात बताववा माटे मुनिओनी वात लीधी छे, केमके मुनिओ परम निष्कर्मदशाने
पामेला छे; मुनिओनी महाक चोथा गुणस्थानवाळा समकीतिनी वात पण समजी लेवी. तेने पण
कोई पुण्य–पापनुं शरण नथी पण अंतरमां पोताना स्वभावना अवलंबने परिणमतुं ज्ञान ज
शरण छे. मोक्षमार्गमां सम्यग्दर्शनथी मांडीने ठेठ केवळज्ञान सुधीमां पोताना ज्ञानस्वभावनुं
अवलंबन ए एेक ज शरण छे. वच्चे क्यांय पुण्यनुं शरण नथी. भले पहेलांं नीचली भूमिकामां
पुण्य–पापना भाव सर्वथा छूटी न जाय, परंतु, ते पुण्य–पापना भाव होवा छतां एवी द्रष्टि प्रगट
करवी जोईए के मने शरणभूत तो मारो ज्ञानस्वभाव ज छे, ज्ञानस्वभावना अवलंबने ज मारो
मोक्षमार्ग छे, आ पुण्य–पापना अवलंबने मारो मोक्षमार्ग नथी. ज्यांसुधी अंतरमां आवी द्रष्टि
प्रगट करीने चैतन्य स्वभावनुं अवलंबन न ल्ये त्यांसुधी जीवने मोक्ष–
भगवाननो आदर
आत्मामां त्रिकाळी स्वभाव अने क्षणिक विकार ए बंने वर्तमानमां एक
साथे वर्ती रह्या छे.
अहो! वर्तमान वर्ततो भगवान हुं छुं एम स्वभावनो आदर करवो, ने
रागादिनो आदर छूटी जवो ते अपूर्व आत्मज्ञान छे. वर्तमान वर्तता भगवाननो
आदर छोडीने रागनो ने परनो आदर करे छे ते अनादिनुं अज्ञान छे.
हे जीव! तारा त्रिकाळी स्वभावनी परम महत्ता ओळखीने तेनो आदर कर.
तन्मयता–शेमां?
अज्ञानी जीव पोताना ज्ञानसामर्थ्यना महिमाने भूलीने, परज्ञेयना
महिमामां रोकाईने त्यां ज तन्मयता माने छे....एटले तेने परनी साथे
एकपणानो मोह छे.
धर्मीने पोताना ज्ञानानंद स्वभावनो महिमा अने तेमां ज
तन्मयता छे. परथी भिन्नतानुं तेने भान छे, तेथी तेने परसाथे
एकत्वबुद्धिनो मोह थतो नथी.