Atmadharma magazine - Ank 127
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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(अनुसंधान पृष्ठ १३३ थी चालु)
आत्मा पोते अंतरमां कल्याणनी मूर्ति छे, रागना अवलंबने के बहारना साधनथी
आत्मानुं कल्याण थतुं नथी. आ अपूर्व वात समज्ये ज जीवनुं कल्याण थाय छे, एटले
आत्मानी साची समजण करवी ते ज विसामो छे भाई! पहेलांं आत्मानी समजणनो
उपाय कर. दया, भक्ति वगेरेनो रागभाव वच्चे होय पण ते कांई शांतिनो उपाय नथी.
राग अने संयोगथी पार वास्तविक चैतन्यस्वरूप शुं छे तेनी समजण करवी ते ज शांतिनो
रस्तो छे. भाई! तारा आत्मामां तारी प्रभुत्वशक्ति भरी छे. तारी प्रभुता तारामां पडी
छे, तेनी सन्मुख थईने प्रतीत करवी ते प्रभुतानो उपाय छे. ज्ञानी तो विधि बतावे, पण
ते विधि समजीने तेनो प्रयोग तो पोताने जाते करवो पडे. अंतरमां स्वभाव–सन्मुख
थईने पोते जाते प्रयोग करे तो यथार्थ श्रद्धा–ज्ञान थाय. अज्ञानी विकारनी अने संयोगनी
ताकातने देखे छे, पण विकारथी पार धु्रव ज्ञानानंद स्वभाव एवो ने एवो पड्यो छे तेनी
ताकात अने महिमा अज्ञानीने देखातो नथी. विकार तो क्षणे–क्षणे पलटी जाय छे ने
ज्ञानानंद स्वभाव एवो ने एवो धु्रव एकरूप रहे छे. आवा स्वभावनी सन्मुख थईने
तेमां एकाग्रता करवी ते ज अपूर्व धर्मनी रीत छे. आ वात कोने समजावाय छे? जेनामां
समजवानी ताकात छे तेने आ वात समजावाय छे. ज्ञानी संतो जाणे छे के जीवोमां आ
वात समजवानी ताकात छे, जीवो आ वात समजी शकशे एम जाणीने ज्ञानीओ आवो
उपदेश आपे छे. “हुं समजवाने लायक छुं” एवुं लक्ष करीने जिज्ञासाथी प्रयत्न करे तो आ
वात समजाया वगर रहे नहि. आ कांई जडने नथी संभळावता, कीडी–मकोडाने नथी
संभळावता, पण जेनामां समजवानी ताकात छे अने समजवानी जिज्ञासाथी जे सांभळवा
आव्यो छे तेने आ वात समजावे छे.
हे भाई! तारो आत्मा शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप छे. शरीरादिक तो जड अजीवतत्त्व छे,
शुभ–अशुभ भावो थाय ते तो आस्रव अने बंधतत्व छे; ते जीवनुं स्वरूप नथी.
ज्ञानपर्याय अंतर्मुख थईने अभेद थतां जे निर्मळदशा थई ते संवर–निर्जरा–मोक्षतत्त्व छे,
ते निर्मळ दशा आत्माथी जुदी नथी पण आत्मा साथे अभेद छे, तेथी ते आत्मा ज छे.
अंर्तस्वभावमां ढळतां निर्मळपर्याय आत्मा साथे अभेद थाय छे. भूतार्थस्वभावनी
द्रष्टिथी जोतां नवे तत्त्वोमां एक शुद्धआत्मा ज प्रकाशमान छे. जडथी ने पुण्य–पापथी पार,
तथा निर्मळ–पर्याय प्रगटी तेमां अभेद शुद्धआत्मा छे, आवा शुद्धआत्मानी द्रष्टि प्रगटी
त्यां धर्मीने एक शुद्धआत्मानी ज मुख्यता छे; स्व–परप्रकाशक ज्ञान खील्युं तेमां संयोगने
तेमज रागने जाणे पण शुद्धआत्मानी मुख्यता धर्मीनी द्रष्टिमांथी कदी खसे नहि.
अवस्थामां विकार होवा छतां आवा शुद्धआत्मानी द्रष्टि कई रीते थाय ते वात आचार्यदेव
विशेषपणे द्रष्टांत आपीने समजावशे.