Atmadharma magazine - Ank 128
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARMA Regd. No. B. 4787
* दया *
लोको कहे छे के दया पाळो! पण भाई रे! आत्माना
भान वगर तारो आत्मा आ भवभ्रमणमां भावमरणे
मरी रह्यो छे ने अनंतु दुःख भोगवी रह्यो छे तेनी तो
दया पाळ! अरे रे! हवे मारो आत्मा आ अवतारथी केम
छूटे? आ भयंकर भावमरणना त्रासथी मारो आत्मा केम
छूटे? एनो अंतरमां विचार तो कर. पापना फळमां दुःखी
थई रहेला ढोर वगेरेने देखीने तो जगतना घणा जीवोने
दया आवे छे; परंतु ज्ञानीने तो, पुण्यना फळ भोगवी
रहेला देवो उपर पण दया आवे छे; केमके आत्माना भान
वगर पुण्यना फळमां लीन थई गया छे तेथी पाप
बांधीने ढोरमां रखडशे. आत्माना भान वगर देवो पण
दुःखी छे. माटे हे भाई! आ भवभ्रमणथी हवे तने थाक
लाग्यो होय अने तारा आत्मानी तने दया आवती होय
तो हवे अंतरमां विचार कर के मारुं वास्तविक स्वरूप शुं
छे? आ देहथी भिन्न मारो आत्मा शुं चीज छे? आवो
विचार करीने सत्समागमे तेनी ओळखाण करवी ते
भवभ्रमणथी छूटवानो उपाय छे.
प्रकाशक:–श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट वती जमनादास माणेकचंद रवाणी, वल्लभविद्यानगर (गुजरात)
मुद्रक:–जमनादास माणेकचंद रवाणी, अनेकान्त मुद्रणालय : वल्लभविद्यानगर (गुजरात)