Atmadharma magazine - Ank 129
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARMA Regd. No. B. 4787
अहिंसा परमो धर्मः
[जेतपुर शहेरमां पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी. वीर सं. २४८०, महा सुद ८]
आ देहमां रहेलो ज्ञानस्वरूप आत्मा सर्वज्ञ भगवाने जेवो जोयो अने कह्यो तेवा
आत्मतत्त्वना ज्ञान वगर जीव अनादिथी संसारमां रखडे छे; पोताना चैतन्यतत्त्वने जाण्या
विना बहारथी धर्म मान्यो छे. ‘
अहिंसा परमो धर्मः’ एम कहे छे पण ते अहिंसानुं
वास्तविक स्वरूप शुं छे ते ओळखतो नथी. पर जीवनी दयानो शुभभाव थाय तेने लोको
अहिंसा कहे छे, परंतु ते तो राग छे, ते कांई धर्म नथी. जेनाथी जन्म–मरणनो अंत आवे
ने आत्मानो मोक्ष थाय एवा अहिंसा धर्मनी आ वात छे; चैतन्यतत्त्वना भान वगर,
शरीर–मन–वाणी मारां ने राग ते हुं एवी जे मोहबुद्धि ते मोटो अधर्म अने हिंसा छे;
देहथी ने रागथी पार अंतरना चिदानंदस्वभावने जाणीने तेमां एकाग्र थतां मोह अने
रागादि भावोनी उत्पत्ति ज न थाय, तेनुं नाम वीतरागी अहिंसा छे. ते ज परम धर्म छे
अने ते ज उत्कृष्ट मंगल छे. आवा वीतरागी अहिंसा धर्मनुं सेवन जीवे पूर्वे एक क्षण पण
कर्युं नथी. शुभरागथी पर जीवोनी दया पाळी छे पण पोते पोताना आत्मानी दया कदी
एक सेकंड पण पाळी नथी. आत्मा ज्ञान–आनंदनो कंद छे तेनी प्रतीत अने एकाग्रता वडे
वीतरागभाव प्रगट करवो ते ज साची दया अने अहिंसा छे; रागथी आत्माने लाभ
मानवो तेमां तो हिंसा छे––अधर्म छे. परजीवने बचाववानो भाव ते शुभराग छे, ते राग
पण परमार्थे हिंसा छे, केमके ते राग वडे आत्मानो वीतराग भाव हणाय छे. परने
बचाववानो भाव ते कांई धर्म नथी, धर्म तो वीतरागभाव छे, अने ते वीतरागभाव
चैतन्य स्वभावना अवलंबने ज थाय छे. रागरहित चैतन्यस्वभावनी प्रतीत अने
एकाग्रता करवी ते धर्म छे, ते ज खरी अहिंसा छे ने ते मोक्षनुं कारण छे.
प्रौढ वयना गृहस्थो माटे––
जैनदर्शन शिक्षणवर्ग
दर वर्षनी माफक आ वर्षे पण श्रावण सुद बीज, शनिवार, ता. ३–७–प४ थी शरू
करीने, श्रावण वद दसम, सोमवार, ता. २३–८–प४ सुधी, सोनगढमां श्री जैन स्वाध्याय
मंदिर ट्रस्ट तरफथी तत्त्वज्ञानना अभ्यास माटे जैनदर्शन शिक्षणवर्ग खोलवामां आवशे.
तत्त्वज्ञानना अभ्यासनी शरूआत करनारा जिज्ञासुओने आ वर्गनुं शिक्षण बहु उपयोगी
छे. जे जैन भाईओने वर्गमां आववानी ईच्छा होय तेमणे सूचना मोकली देवी अने
वखतसर आवी जवुं.
––श्री जैन स्वाध्याय मंदिर
सोनगढ : सौराष्ट्र
प्रकाशक:– श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट वती जमनादास माणेकचंद रवाणी; वल्लभविद्यानगर (गुजरात)
मुद्रक:– जमनादास माणेकचंद रवाणी अनेकान्त मुद्रणालय : वल्लभविद्यानगर (गुजरात)