Atmadharma magazine - Ank 130
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण: २०१०: आत्मधर्म–१३० : १९७:
* आत्म बोध *
[बोटाद शहेरमां पू. गुरुदेवनुं प्रवचन : वीर सं. २४८०, वैशाख वद ८]
अनादिकाळथी पोताना आत्माना यथार्थ बोध वगर जीव संसार परिभ्रमण करी रह्यो छे. वर्तमानमां
ज्ञाननो जे व्यक्त अंश छे–मतिश्रुत ज्ञान छे तेना वडे एकला परने जाणे छे, पण ते ज्ञानने स्वसन्मुख करीने
अपूर्व आत्मबोध करवो ते मुक्तिनुं कारण छे. आत्माना ज्ञानानंद स्वरूपनी ओळखाण करीने तेनी सम्यक्
प्रतीति करवी ते सम्यदर्ग्शन छे, ते सम्यग्दर्शनने ‘रत्न’ नी उपमा छे, ने ते मोक्षनुं कारण थाय छे. आ देहादिनी
क्रियाओ तो आत्माथी भिन्न छे, ते कांई आत्माने धर्मनुं साधन नथी. जेम आ शरीरना स्पर्शनो ख्याल करवो
होय तो शरीरना अवयवभूत आंगळी वडे तेनो ख्याल आवशे, पण लाकडा वडे शरीरनो स्पर्श करे तो तेनो
ख्याल नहि आवे, केमके ते चीज शरीरथी जुदी छे. हवे आंगळी उपर मेलनां जाडां थर जाम्यां होय तोपण ते
आंगळी वडे शरीरना स्पर्शनो बराबर ख्याल नहि आवे. तेम भगवान आत्मा अरूपी चैतन्यशरीरी छे, तेना
ज्ञानानंद स्वरूपनो ख्याल शरीरनी क्रिया वडे नहि आवे, केमके शरीर तो भिन्न चीज छे. अंदर जे ज्ञाननो
उघाड छे ते आत्मानो अंश छे, ते ज्ञानने स्वसन्मुख करता आत्माना ज्ञानानंद स्वभावनो ख्याल आवे छे,
केमके ते ज्ञान पोतानी चीज छे हवे ते ज्ञान उपर विकारनां थर जाम्यां होय एटले के ‘पुण्य–पाप ते हुं’ एवी
ऊंधी रुचिमां ज्ञान अटक्युं होय तो ते ज्ञान वडे आत्माना स्वभावनो बोध थतो नथी. आ आत्माबोधनी वात
छे; एकवार पण यथार्थ आत्मबोध करे तो ते मोक्षनुं कारण थाय; आवो आत्मबोध केम थाय तेनी आ वात छे.
“कोटि वर्षनुं स्वप्न पण जागृत थतां शमाय;
तेम विभाव अनादिनो ज्ञान थतां दूर थाय.”
जेम ऊंघमां करोडो वर्षनुं स्वप्न देखाय, पण ज्यां जागीने आंख ऊघाडी त्यां ते बधुं शमाई जाय छे,
करोडो वर्षनुं स्वप्न होय पण तेने शमाता करोड वर्ष नथी लागता, जागे त्यां एक क्षणमां ते दूर थई जाय छे.
तेम आत्मा पोताना ज्ञानानंद स्वरूपने भूलीने, जडनी क्रिया मारी अने पुण्यना भाव थया ते मारुं स्वरूप छे.
एवी ऊंधी मान्यताथी अनादि विभाव करीने संसारमां रखडी रह्यो छे; पण हुं तो जडथी भिन्न, ने रागादिथी
पार, शुद्ध ज्ञानानंद स्वरूप छुं एवो स्वसन्मुख आत्मबोध करे तो ते अनादिनो विभाव एक क्षणमां नाश थई
जाय छे. अनादिकाळनो विभाव नाश करवा माटे कांई तेटला लांबा काळनी जरूर पडती नथी. गमे तेटला
काळनुं अंधारुं होय पण ज्यां प्रकाश थाय त्यां एक क्षणमां ते टळी जाय छे, तेम सत्समागमे ज्यां
आत्मज्ञाननो प्रकाश होय त्यां अनादिना अज्ञान अंधकारनो नाश थई जाय छे. आत्मानुं सम्यग्ज्ञान ते परम
आनंदनुं कारण छे. ते सम्यग्ज्ञान केम प्रगटे तेनी आ वात छे.
आत्मानो यथार्थ बोध केम थाय ते रीत अनंतकाळथी जीवोए जाणी नथी. बहारनी लौकिक कळा जाणे
छे पण ते बधायनो जाणनारो हुं पोते ज्ञानस्वरूप छुं एवुं पोताना स्वभावनुं लक्ष कदी कर्युं नथी. बहारना
साधनथी आत्मबोध थाय नहि; तेमज जिज्ञासुने साचा देवगुरु धर्म प्रत्येनो भक्तिनो उल्लासभाव आवे, पण
ते शुभराग छे, ते राग वडे पण आत्मबोध थाय नहि. आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, तेनो बोध ज्ञान वडे ज थाय छे.
ज्ञानने अंतरमां वाळीने स्वसन्मुख करतां ते ज्ञानवडे आत्मबोध थाय छे. आवुं आत्मज्ञान थतां पोताने
अंदरथी आत्मानो संतोष प्रगटे, सिद्ध भगवान जेवी अतीन्द्रिय शांतिना अंशनुं पोताने अंतरमां वेदन थाय
–आवी दशा प्रगटे तेनुं नाम धर्म छे. स्वसन्मुख ज्ञान सिवाय बीजो कोई तेनो उपाय नथी.
जुओ, श्री जिनेन्द्र भगवाननुं मंदिर, प्रतिष्ठा वगेरेनो भक्तिभाव जिज्ञासुओने आवे, संतोने पण
एवो भाव आवे, तीर्थधामनी यात्रानो भाव पण आवे; कुंदकुंदाचार्यदेव गिरनारजी तीर्थनी यात्राए पधार्या
हतां.