Atmadharma magazine - Ank 130
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण: २०१०: आत्मधर्म–१३० : १८७:
आत्मानुं ध्येय शुं?


देहथी भिन्न ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा छे तेनी ओळखाण करीने तेमां एकाग्र थवुं ते ज आत्मानुं ध्येय
अने कर्तव्य छे. आत्माना भान वगर अनादिकाळथी आत्मा संसारमां रखडे छे, ते संसार परिभ्रमण टळीने
आत्मानी मुक्ति थाय–एवुं कर्तव्य शुं, तेनी आ वात छे. आ आत्माने पोतानो शुद्ध आत्मा ज ध्येय छे; ते
शुद्धआत्माने ध्येय बनावीने उपयोगने एकाग्र करतां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र प्रगटे छे, तेनाथी संसारनो
नाश थईने मोक्षदशा प्रगटे छे.
आत्मा देहथी जुदो, ज्ञान–आनंद स्वरूप छे, तेनो जाणवा देखवानो स्वभाव छे; पण ज्ञानने अंतर्मुख
करीने पोताना ज्ञानस्वरूपने न जोतां अनादिथी बहारमां ईन्द्रियना विषयोने ज देखे छे ने त्यां ज पोतापणुं
मानीने अटके छे तेथी अनादिथी तेनामां तत्त्वज्ञानना तरंग ऊठता नथी. आ ‘तत्त्वज्ञान तरंगिणी’ वंचाय छे,
आत्मामां तत्त्वज्ञानना तरंग केम ऊठे तेनी आ वात छे. आ शरीर देखाय छे ते तो जड छे तेनो जाणनार
आत्मा छे ते देहथी जुदो छे; अने क्षणे क्षणे अंदरमां जे रागादिनी लागणी थाय छे ते कृत्रिम–उपाधिरूप क्षणिक
छे, ते आत्मानुं कायमी स्वरूप नथी; तेनाथी रहित ज्ञानआनंद स्वभावे आत्मा अनादि अनंत छे, आवा
आत्मानी संभाळ करीने तेने ज्ञाननुं ध्येय बनावे तो आत्मामां तत्त्वज्ञानना अपूर्व तरंग ऊछळे, ते मोक्षनुं
कारण छे. ज्ञानस्वभाव तो एवो ने एवो अनादि अनंत छे पण जीवे कदी पोताना स्वरूपनी संभाळ करी नथी
तेथी ज ते संसारमां रखडे छे. एक क्षण पण पोताना वास्तविकस्वरूपनी संभाळ करे तो मुक्ति थया विना रहे
नहि.
जुओ भाई, आ मनुष्यदेह मळवो अनंतकाळे मोंघो छे, तो मनुष्यपणुं पामीने विचार करवो जोईए के
अरे, मारा आत्मानुं हित केम थाय? मारो आत्मा अनादिथी आ संसारमां रखडे छे तो हवे एवो शुं उपाय करुं
के जेथी संसारभ्रमणनो अंत आवे ने आत्मानी मुक्ति थाय! हुं शरीरथी भिन्न चैतन्यस्वरूप छुं–एम पोताना
स्वरूपनी ओळखाण करवी ते ज आ मनुष्यपणामां करवा जेवुं ध्येय छे, अने ए ज धर्म छे.
आत्मानुं ध्येय शुं? कर्तव्य शुं? अथवा धर्मनी क्रिया शुं? तेनी आ वात छे. प्रथम शरीर वगेरेनी क्रिया
ते आत्मानुं ध्येय नथी केमके ते तो जड छे–आत्माथी भिन्न वस्तु छे, अने अंदरमां पुण्य पापना परिणाम थाय
ते पण आत्मानुं ध्येय नथी, ते तो विकार छे; भगवान आत्मा आ मनुष्यदेहथी पार चैतन्यतत्त्व छे, ते
जाणनार–देखनार छे, जो ते पोते पोताने जाणे देखे तो आनंदनो अनुभव थाय ने परमानंदमय मुक्तदशा पामे.
माटे पोतानो शुद्ध ज्ञानानंद स्वरूप आत्मा ज आ आत्माने ध्येयरूप छे; तेनी श्रद्धा, ज्ञान अने एकाग्रता रूप
क्रिया ते मोक्षनुं कारण छे.
अनादिथी पोताना वास्तविक ध्येयने चूकीने अज्ञानी जीव, ‘शरीरनां काम मारां छे, संयोगनी क्रियाथी
मने लाभ के नुकसान थाय, तथा पुण्य–पाप मारुं ध्येय छे,’ एम मानीने, परमां ने रागमां एकाग्रताथी ऊंधुं
ध्यान करे छे तेथी संसारमां रखडे छे. सत्समागमे सत्यनुं श्रवण करीने तेना यथार्थ भावने जीवे कदी एक क्षण
पण हृदयमां झील्यो नथी; शरीरनी क्रियानी तथा रागनी पक्कडमां अटकी गयो छे पण तेनाथी पार अंतरमां
चैतन्यतेज–ज्ञानबिंब हुं छुं, जाणनार तत्त्व ज हुं छुं, एवी पककड अंतरमां कदी करी नथी. जाणनारे पोते
पोताने न जाण्यो ने परने ज जाणतां त्यां पोतापणुं मान्युं तेथी ते चार गतिमां भ्रमण करी रह्यो छे. ते भ्रमण
क्यारे टळे? के हुं तो जाणनार छुं, पर चीजोने जाणवा छतां तेमनाथी मारुं ज्ञान जुदुं छे, एम जाणीने पोते
पोताना ज्ञानने ज ध्येय बनावे तो संसारभ्रमण टळे ने आत्माना आनंदनो अनुभव थाय.