Atmadharma magazine - Ank 132
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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जगतने अनादिथी दुर्लक्ष्य एवा–
चैतन्यतत्त्वनी प्राप्तिना उपायनुं वर्णन
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‘अहो! अंतरमां परम चैतन्यतत्त्व छे तेने जगतना जीवो समजे ने
आत्माना आनंदनी सन्मुख थाय! –आवो संतोने विकल्प उठयो, अने वाणी
नीकळी. पण चैतन्यतत्त्व तो वचनातीत छे ने विकल्पथी पण पार छे, जीव
पोते जागृत थईने पुरुषार्थ वडे चैतन्यतत्त्वनी सन्मुख जाय तो अंदरथी
चैतन्यनो झणकार जागे ने आनंदनुं वेदन थाय. ज्ञानने अंतर्मुख करीने
अंदरथी चैतन्यनो झणझणाट आव्यो त्यां चैतन्यतत्त्व लक्षमां आवे छे ने
तेनो अपूर्व आनंद अनुभवमां आवे छे. माटे हे जीव! तुं वाणी के विकल्प
उपर तारा लक्षनुं जोर न आपीश, पण शुद्ध चैतन्यतत्त्व उपर ज लक्षनुं जोर
आपीने तेने ध्येय बनावजे.
(राणपुरमां वैशाख सुद दसमना रोज पू. गुरुदेवनुं प्रवचन.)
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आजे भगवान महावीर परमात्माने केवळज्ञान थवानो दिवस छे तेथी मांगळिक छे. आत्मानुं परमार्थ–
स्वरूप जाणीने तेमां परिपूर्ण एकाग्रता वडे भगवानने आजे केवळज्ञान प्रगटयुं. आत्मानुं परमार्थस्वरूप शुं छे तेनुं
वर्णन आ पद्मनंदीपचीसीना ‘निश्चयपंचाशत’ अधिकारमां कर्युं छे. आत्मानुं निश्चय एटले वास्तविक शुद्ध
चैतन्यस्वरूप शुं छे तेनुं यथार्थज्ञान जीवे पूर्वे कदी कर्युं नथी; ते निश्चयस्वरूपना ज्ञान विना अनादिथी जीव संसारमां
रखडे छे. आत्माना वास्तविक स्वरूपनुं ज्ञान करे तो अनादिनुं अज्ञान मटे ने संसार परिभ्रमण टळे. तेथी अहीं आ
अधिकारमां शास्त्रकार आत्मानुं निश्चयस्वरूप शुद्ध चैतन्यमूर्ति छे ते ओळखावे छे; तेमां मंगलाचरण करतां
चैतन्यनो महिमा करे छे–
दुर्लक्ष्यं जगति परं ज्योतिर्वाचां गणः कवीन्द्राणाम् ।
जलमिव वजे्र यस्मिन्नलब्धमध्यो बहिर्लुठति ।। १।।
जेम हीरा–रत्नमां पाणी अंदर प्रवेशतुं नथी पण बहार ज रहे छे तेम चैतन्यस्वरूप ज्योति भगवान
आत्मामां मोटा मोटा कविओनी वाणी पण प्रवेशी शकती नथी, पण चैतन्यनी बहार ज रहे छे; आवुं चैतन्यस्वरूप
जगतमां दुर्लक्ष्य छे. वाणीना अवलंबनथी के वाणी तरफना रागथी लक्षमां आवी जाय–एवुं चैतन्यस्वरूप नथी.
वाणी अने रागनुं अवलंबन छोडीने ज्ञानने अंर्तस्वभावनी सन्मुख करे तो आत्मा लक्षमां आवे अने तेना
अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थाय. अहो! भगवान आत्मा वचनातीत छे, तेनामां वाणीनो प्रवेश नथी. संतो
वाणीथी तेनुं अमुक वर्णन करे, पण पोते अंतरमां लक्ष करीने अनुभवमां पकडे तो वाणीने निमित्त कहेवाय; पण
वाणीमां एवी ताकात नथी के आत्मानुं स्वरूप बतावे. जेम ताजा घीनो स्वाद ख्यालमां आवे छे पण वाणीथी ते
बतावी शकातो नथी, तेम चैतन्यस्वभावना अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद अंतरना ज्ञान वडे अनुभवमां आवे छे पण
वाणी द्वारा तेनुं पूरुं वर्णन थई शकतुं नथी. चैतन्यस्वरूप आत्मा वाणीथी अगोचर होवा छतां, ज्ञानमां न समजी
शकाय एवो नथी. चैतन्यस्वरूप आत्मा ईंद्रियोथी के विकल्पोथी लक्षमां आवे तेवो नथी तेथी दुर्लक्ष्य छे, परंतु
ज्ञानने अंतर्मुख करीने लक्षमां ले, तो भगवान आत्मा जणाय तेवो छे. जीवे अनादिथी बहारमां ज
आश्विनः २४८०
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