Atmadharma magazine - Ank 132
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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जोयुं छे, पण अंर्तमुख थईने आत्मानुं अवलोकन कदी कर्युं नथी, माटे ते दुर्लक्ष्य छे. जेम हीरामां पाणीनो प्रवेश
थतो नथी तेम चैतन्यरत्नमां वाणीनो के विकल्पनो प्रवेश थतो नथी. जुओ, आचार्यदेवने विकल्प उठयो छे अने
वाणीथी कथन थाय छे, छतां निर्मानताथी वस्तुस्वरूपने जाहेर करे छे के भाई! अमारा अरूपी आत्मामांथी आ
वाणी नथी आवती, अने आ वाणी वडे आत्मा जणाय–एम नथी. जुओ, सत्य समजनारने आवा संतोनी वाणी
ज निमित्त होय, एनाथी विपरीत वाणी निमित्त तरीके न होय; छतां चैतन्य स्वरूपी आत्मा तो ते वाणीथी पण
अगोचर छे. वाणीमां तो अमुक इशारा आवे पण अंतरमां ज्ञान वडे पोते ख्यालमां लई ले तो ते ज्ञान वडे
समजाय एवो आत्मा छे. भगवान! तारो आत्मा चैतन्यज्योत छे ते स्व–परनो प्रकाशक छे. जेम अग्निनी
ज्योतमां पाचक, दाहक अने प्रकाशक एवी त्रण शक्ति छे, तेम चैतन्य ज्योतआत्मामां सम्यग्दर्शननी एवी पाचक
शक्ति छे के त्रिकाळी ज्ञानानंदस्वभावने अंतरनी प्रतीतिमां पचावी दे छे; तथा सम्यग्ज्ञाननो स्वभाव स्वपरप्रकाशक
छे; ने सम्यक्चारित्रनो स्वभाव रागादिने बाळी नांखे तेवो दाहक छे.
आत्मानो ज्ञान स्वभाव छे, ते स्वभावमां परिपूर्ण जाणवानी ताकात छे. जेनो जे स्वभाव होय ते अपूर्ण
न होय. आत्मानी वर्तमान पर्यायमां व्यक्तज्ञान थोडुं होवा छतां, ते ज्ञानने अंतरमां वाळे तो, आत्माना
स्वभावमां परिपूर्ण ज्ञाननी ताकात भरी छे ते प्रतीतमां आवे छे; अने पूर्ण स्वभावनी प्रतीत थतां ‘अल्पज्ञता के
विकार जेटलो हुं’ एवी पर्यायबुद्धि छूटी जाय छे. जेम–लींडीपीपरना एकेक दाणामां चोसठपोरी तीखाशथी पूरी
शक्ति छे, चोसठपोरी तीखाश प्रगटया पहेलां पण तेनामां तेवी ताकात पडी छे, तेम एकेक आत्मामां त्रणकाळ
त्रणलोकने जाणे एवी सर्वज्ञ शक्ति पडी छे, सर्वज्ञता प्रगटया पहेलां पण स्वभावमां सर्वज्ञतानी ताकात भरी छे;
अल्पज्ञता वखते पण धर्मीने पोताना परिपूर्ण स्वभावसामर्थ्यनी एवी प्रतीत छे के मारो स्वभाव अल्पज्ञ रहेवानो
नथी, पण सर्वज्ञ थवानो मारो स्वभाव छे, सर्वज्ञतानी ताकात अत्यारे ज मारा आत्मामां पडी छे. मारामां सर्वज्ञ
शक्ति छे तेना ज आधारे मारी सर्वज्ञदशा प्रगटशे, ए सिवाय बीजा कोईना आधारे मारी सर्वज्ञदशा नहि प्रगटे.
रागरहित शुद्ध चिदानंद स्वभावनी श्रद्धा अने ज्ञान थवा छतां धर्मीने हजी नीचली भूमिकामां पुण्य–पापना
भावो आवे खरा, पण त्यां अंतरमां पुण्य–पापथी पार ज्ञानानंद स्वरूपनी द्रष्टि तेने वर्ते छे, द्रष्टिनी शूरता धर्मीने
एक क्षण पण खसती नथी; राग वखते य रागथी भिन्नपणे द्रष्टिनुं परिणमन वर्ते छे. अज्ञानी तो ‘राग ते ज हुं,
रागथी मने लाभ थाय’–एम मानीने राग साथे एकत्वपणे परिणमे छे, एटले रागथी जुदुं चैतन्यतत्त्व तेने दुर्लक्ष्य
छे. रागमां एवी ताकात नथी के चैतन्यनुं लक्ष करावी शके. आखा चैतन्यतत्त्वने पचावी शके एवी ताकात रागमां
नथी पण सम्यक्श्रद्धामां ज एवी ताकात छे के आखा चैतन्यतत्त्वने प्रतीतमां पचावी ले छे. लोको बोले छे के ‘मूडी
खेडूत न पचावी शके, वाणिया पचावी शके’ तेम अहीं आत्मा–वेपारी पोताना चैतन्य उपयोगना वेपारमां अखंड
चैतन्यस्वभावने लक्षमां लईने, प्रतीतमां पचावे–एवी तेनी ताकात छे. ए सिवाय शरीरमां एवी ताकात नथी ने
रागमां पण एवी ताकात नथी के तेना वडे अखंड चैतन्यस्वभाव प्रतीतमां आवे.
बहारमां पैसा वगेरे मळवा के टळवा तेमां जीवनुं कांई कार्य नथी; पुण्य होय तो पैसा वगेरे मळे अने पुण्य
न होय तो लाख उपाये पण पैसा रहे नहि. जिनमंदिर वगेरेमां लाखो रूपिया खर्चे तो पण पैसा खरचतां खूटता
नथी, पुण्य होय तो पैसा खूटे नहि ने पुण्य खूटतां पैसा रहे नहि. माटे पैसा वगेरे पर वस्तुने आत्मा पचावी शके
ए वात तो साची नथी. पण अंतरमा आत्माना अखूट चैतन्यनिधानने प्रतीतमां लईने पचावी देवानी
सम्यक्श्रद्धानी ताकात छे. ए सिवाय पुण्य–परिणाममां पण एवी ताकात नथी. सर्वज्ञ भगवान कहे छे के हे जीव!
तारामां सर्वज्ञतानी ताकात छे एनी पहेलां प्रतीत तो कर! अंतर्मुख थईने तारा चैतन्यनिधानमां डोकियुं तो कर.
अंदर नजर करतां न्याल करी दे एवा चैतन्यनिधान तारामां भर्या छे. वळी जेम अग्निनी ज्योतमां प्रकाशक अने
दाहक स्वभाव छे. तेम चैतन्यज्योति भगवान आत्मामां स्व–परने जाणे एवी प्रकाशकशक्ति छे, अने ज्ञानमां
एकाग्र थईने रागादि विकारने बाळीने भस्म करी नांखे एवो दाहक स्वभाव छे, एटले के सम्यक्
ः २२८ः
आत्मधर्मः १३२