सम्यक्श्रद्धामां आखा आत्माने पचावे एवी पाचकशक्ति छे, सम्यग्ज्ञानमां स्व–परने जाणे एवी प्रकाशकशक्ति छे ने
सम्यक्चारित्रमां रागादिने बाळे एवी दाहकशक्ति छे. आवा सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र स्वरूप चैतन्यतत्त्व छे ते
आ जगतमां उत्तम छे. अहो! आवुं परम चैतन्यतत्त्व जगतने दुर्लक्ष छे. अहीं शास्त्रकार कहे छे के आ चैतन्यतत्त्व
स्वसंवेद्य छे, ते पोते पोताना ज्ञानथी ज जणाय तेवुं छे, ए सिवाय रागथी के वाणीथी ते जणाय तेवुं नथी. वाणीथी
ते अगोचर छे. वाणीमां तेनुं अमुक कथन आवशे पण वाणी काढवी ते अमारो स्वभाव नथी, अमारा आत्मामांथी
वाणी नीकळती नथी अने ते वाणी तमारा आत्मामां प्रवेशती नथी; एटले वाणीना लक्षे आत्मा नहि पकडाय, पण
वाणीनुं लक्ष छोडीने ज्ञानने अंर्तस्वभावनी सन्मुख करे तो आत्मा लक्षमां आवे तेवो छे, ज्ञान सिवाय रागादिथी
के वाणीथी ते दुर्लक्ष्य छे. अंर्त–स्वभावने लक्षमां लेवानो खरो प्रयत्न अनंतकाळमां एक सेकंड पण जीवे कर्यो नथी.
पुण्य–पाप मने हितरूप छे अने अनुकूळ संयोगो मने मदद करशे–एम मानीने जीव बहारना लक्षमां ज अटकयो छे,
पण अंतरमां संयोगथी तेमज रागथी पार पोताना चैतन्यतत्त्वनुं लक्ष कदी कर्युं नथी माटे ते दुर्लक्ष छे. परंतु जो
यथार्थज्ञान वडे लक्षमां लेवा मांगे तो ते दुर्लक्ष नथी. स्वसंवेदन ज्ञानथी अनुभवमां आवे छे. जेम तीखां (मरी) नी
तीखास अने मरचांनी तीखास ए बंनेना रसमां फेर छे, ते ज्ञानथी ख्यालमां आवे छे पण वाणीथी पूरुं समजावी
शकातुं नथी, तेम अहीं संतो कहे छे के अहो! भगवान आत्मा अतीन्द्रिय चैतन्यरसनो पिंड छे, ते चैतन्यरसनो
स्वाद अनुभवमां आवे छे पण वाणी द्वारा ते शांत आनंदरसनुं वर्णन पूरुं थई शकतुं नथी. प्रभो! वाणीनो प्रवेश
आत्मामां नथी, ने विकल्प वडे पण आत्माना स्वभावमां प्रवेश थई शकतो नथी. आवो तारा चैतन्यतत्त्वनो
महिमा छे. चैतन्यस्वभावनुं आवुं सामर्थ्य अंतरमां पोताने न भासे तो वाणी शुं करे?
(२) विकारनी विपरीतता
–ए त्रणे प्रकारोने बराबर ओळखे, तो संयोग अने विकारनुं लक्ष छोडीने चैतन्यस्वभावमां लक्षने एकाग्र
नहि ने सम्यग्ज्ञान थाय नहि. अनादिथी जीवे संयोगोनुं अने रागनुं ज लक्ष कर्युं छे पण पोताना चैतन्यसामर्थ्यने
कदी लक्षमां लीधुं नथी, माटे तेने दुर्लक्ष कह्युं छे. अहीं चैतन्यतत्त्वने ‘दुर्लक्ष’ कहीने एम समजाववुं छे के हे जीव! तुं
तेने लक्षमां लेवानो अंतरंग उद्यम कर; ते लक्षमां आवी ज न शके–एवो तेनो आशय नथी. वाणीथी, इन्द्रियोथी के
रागथी दुर्लक्ष्य होवा छतां अंतर्मुख ज्ञानथी ते लक्षमां आवे छे, माटे तारा ज्ञानवडे चैतन्यतत्त्व लक्षमां लेवानो उद्यम
कर, एवो उपदेश छे.
वाणीना योगे नीकळे पण जो तेनो भाव लक्षमां लईने पोते चैतन्यतत्त्वने न पकडे तो वाणीमां समजावी देवानी
ताकात नथी. गणधरदेवनी वाणीमां पण चैतन्यतत्त्वनुं पूरुं वर्णन न आव्युं. वचनातीत वस्तु वचनमां कई रीते
आवे? वचनमां तो स्थूळ वर्णन आवे. बाकी तो ज्ञानथी अंर्तलक्ष करीने सीधी चैतन्यवस्तुने पकडे तो ते
अनुभवमां आवे तेम छे. माटे श्रीमद् राजचंद्रे पण कह्युं छे के–
कही शक्यां नहि ते पण श्री भगवान जो,
तेह स्वरूपने अन्य वाणी तो शुं कहे?
अनुभव गोचर मात्र रह्युं ते ज्ञान जो.
नथी. दुर्लभ होवा छतां यथार्थ प्रयत्नथी ते सुलभ थई शके छे. आवा चैतन्यस्वभावने लक्षमां लईने तेनो महिमा
करवो, तेनी भावना करवी–ते मांगलिक छे. आवा चैतन्यतत्त्वने लक्षमां लीधा विना बीजी कोई पण रीते मुक्तिना
मार्गनी शरूआत थवानी नथी.
आश्विनः २४८०