विकल्प ते विकार छे ते पण चैतन्यथी विपरीत छे, तेना वडे चैतन्यतत्त्वमां पहोंचातुं नथी; अंतरना ज्ञान वडे ज
लक्षमां आवे एवुं चैतन्यतत्त्व छे. हुं आवा चैतन्यतत्त्वनी प्राप्तिनो ज कामी छुं, वाणी अने विकल्प हो भले पण
मारुं ध्येय तो शुद्ध चैतन्यतत्त्वने प्राप्त करवानुं ज छे. चैतन्यतत्त्वना वर्णननो विकल्प ऊठयो होवा छतां पण
‘चैतन्यतत्त्व ते विकल्पथी अगोचर छे’ एम कहीने ते विकल्प हेय करी नांख्यो छे, तेमज ‘वाणीथी पण चैतन्यतत्त्व
अगोचर छे’ एटले वाणी तरफ पण जोर न रह्युं के ‘हुं आवी वाणी काढीने सामाने चैतन्यतत्त्व समजावी दउं!’
वाणी उपर के विकल्प उपर जोर नथी पण चैतन्यतत्त्व उपर ज जोर छे, चैतन्यतत्त्व ज अमारुं ध्येय छे; माटे
श्रोताने पण कहे छे के, तुं वाणी के विकल्प उपर तारा लक्षनुं जोर न आपीश, पण शुद्धचैतन्यतत्त्व उपर ज लक्षनुं
जोर आपीने तेने ध्येय बनावजे. ‘अरे! मारुं चैतन्यतत्त्व आ विकल्पथी पार छे’ आम ज्यां ज्ञानने अंतर्मुख
करीने अंदरथी चैतन्यनो झणझणाट आव्यो त्यां चैतन्यतत्त्व लक्षमां आवे छे ने तेनो अपूर्व आनंद अनुभवमां
आवे छे. अहो! अमारो आत्मा पोते अतीन्द्रिय आनंदनो सागर छे, ते वचनातीत छे ने विकल्पथी पण पार छे,–
आम पोते जागृत थईने पुरुषार्थ वडे चैतन्यतत्त्वनी सन्मुख जाय तो अंदरथी चैतन्यनो झणकार जागे ने आनंदनुं
वेदन थाय. संतोने एवो विकल्प ऊठयो के ‘अहो! आवुं परम चैतन्यतत्त्व छे तेने जगतना जीवो समजे ने
आत्माना आनंदनी सन्मुख थाय!’ आवा विकल्पथी वाणी नीकळी, पण ते विकल्प के वाणी वडे आत्मा अनुभवमां
आवी जाय तेवो नथी. तुं विकल्प अने वाणीनुं अवलंबन छोडीने ज्ञान वडे ज ज्ञानानंद स्वभावने पकडवानो
प्रयत्न कर तो तने वाणी निमित्त कहेवाय. पण चैतन्यतत्त्व तो वाणीथी पार ज छे. वाणी जडरूपी छे तेनामां एवी
ताकात नथी के अरूपी चैतन्यतत्त्वमां प्रवेश करे. वाणी तो चैतन्यतत्त्वनी बहार ज लोटे छे. आवा चैतन्यतत्त्वने
ज्ञाननुं लक्ष्य बनावीने तेनो अनुभव करवो ते अपूर्व धर्म छे, ने ते ज केवळज्ञाननी प्राप्तिनो उपाय छे.
मां आवी गया छे. ते वखते अंदाज रूा. ७०००) नुं फंड थयेलुं.
करी छे, तेमां रूा. २प०१) पोताना नामथी अने रूा. २प०१) पोतानां धर्मपत्नी
कसुंबाबेनना नामथी जाहेर कर्या छे.
घणो उत्साह बताव्यो छे. ते माटे तेमने धन्यवाद घटे छे.