‘आत्मा ज्ञायक छे.’
क्रमबद्धपर्यायनुं विस्तारथी स्पष्टीकरण अने
अनेक प्रकारनी विपरीत कल्पनाओनुं निराकरण
[समयसार गा. ३०८ थी ३११ तथा तेनी टीका उपर पू. गुरुदेवनां खास प्रवचनो]
पू. गुरुदेवे आ प्रवचनोमां सळंगपणे एक बाबत उपर खास भार मूक्यो छे के : ज्ञायक सामे
नजर राखीने ज आ क्रमबद्धपर्यायनो यथार्थ निर्णय थाय छे. क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय करनारनी द्रष्टि
काळ सामे नथी होती, पण ज्ञायकस्वभाव उपर होय छे. ज्ञायक सन्मुखनी द्रष्टिना अपूर्व पुरुषार्थ वगर
खरेखर क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय थतो नथी ने तेने निर्मळ क्रमबद्धपर्याय थती नथी. आ वात दरेक
मुमुक्षुए बराबर लक्षमां राखवा जेवी छे.
“भाई रे! आ मार्ग तो छूटकारानो छे,–के बंधावानो? आमां तो ज्ञानस्वभावनो निर्णय करीने
छूटकारानी वात छे; आ वातनो यथार्थ निर्णय करतां ज्ञान छूटुं ने छूटुं रहे छे. जे छूटकारानो मार्ग छे तेना
बहाने जे स्वछंदने पोषे छे,–अथवा तो तेने ‘रोगचाळो’ कहे छे, ते जीवने छूटकारानो अवसर क्यारे
आवशे?” –पू. गुरुदेव
[कुंदकुंद भगवानां मूळ सूत्रो]
दवियं जं उप्पज्जइ गुणोहिं तं तेहिं जाणसु अणण्णं।
जह कडयादीहिं दु पज्जएहिं कणयं अणण्णंमिह।। ३०८।।
जीवस्साजीवस्स दु जे परिणामा दु देसिया सुत्ते।
तं जीवमजीवं वा तेहिमणण्णं वियाणाहि ।। ३०९।।
ण कुदोचि वि उप्पणणो जह्मा कज्जं ण तेण सो आदा।
उप्पादेदि णकिंचि वि कारणमवि तेण ण स होइ।। ३१०।।
कम्मं पडुच्च कत्ता कत्तारं तह पडुच्च कम्माणि।
उप्पज्जंति य णियमा सिद्धी दु ण दीसए अणणा।। ३११।।
[अमृतचंद्राचार्यदेवनी टीका]
जीवो हि तावत्क्रमनियमितात्म–
रिणामैरुत्पद्यमानो जीव एव नाजीवः, एवमजीवोऽपि
क्रमनियमितात्परिणामैरुत्मपद्यमानोऽजीव एव न
जीवः, सर्वद्रव्याणां स्वपरिणामैः सह तादात्म्यात्
कंकणदिपरिणमैः कांचनवत्। एवं हि
जीवस्यस्वपरिणामैरुत्पद्यमानस्याप्यजीवेन सह
कार्यकारणभावो न सिध्यति, सर्व द्रव्याणां द्रव्यांतरेण
सहोत्पाद्योत्पादकभावाभावात्; तदसिद्धौ चाजीवस्य
जीवकर्मत्वं न सिध्यति, तदसिद्धौ च
कर्तृकर्मणोरनन्यापेक्षसिद्धत्वात् जीवस्याजीवकर्तृत्वं न
सिध्यति। अतो जीवोऽकर्ता अवतिष्ठते।
[गुजराती हरिगीत]
जे द्रव्य ऊपजे जे गुणोथी तेथी जाण अनन्य ते,
ज्यम जगतमां कटकादि पर्यायोथी कनक अनन्य छे. ३०८
जीव अजीवना परिणाम जे दर्शाविया सूत्रो महीं,
ते जीव अगर अजीव जाण अनन्य ते परिणामथी. ३०९
ऊपजे न आत्मा कोईथी तेथी न आत्मा कार्य छे,
उपजावतो नथी कोईने तेथी न कारण पण ठरे. ३१०
रे! कर्म–आश्रित होय कर्ता, कर्म पण कर्ता तणे
आश्रितपणे ऊपजे नियमथी, सिद्धि नव बीजी दीसे. ३११
[टीकानो गुजराती अनुवाद]
प्रथम तो जीव क्रमबद्ध एवा पोताना परिणामोथी
ऊपजतो थको जीव ज छे, अजीव नथी; एवी रीते अजीव
पण क्रमबद्ध पोताना परिणामोथी ऊपजतुं थकुं अजीव ज
छे. जीव नथी; कारण के जेम (कंकण आदि परिणामोथी
ऊपजता एवा) सुवर्णने कंकण आदि परिणामो साथे
तादात्म्य छे तेम सर्व द्रव्योने पोताना परिणामो साथे
तादात्म्य छे. आम जीव पोताना परिणामोथी ऊपजतो
होवा छतां तेने अजीवनी साथे कार्यकारणभाव सिद्ध थतो
नथी, कारण के सर्व द्रव्योने अन्य द्रव्य साथे उत्पाद्य–
उत्पादकभावनो अभाव छे; ते (कार्यकारणभाव) नहि
सिद्ध थतां, अजीवने जीवनुं कर्मपणुं सिद्ध थतुं नथी; अने
ते (–अजीवने जीवनुं कर्मपणुं) नहि सिद्ध थतां, कर्ता–
कर्मनी अन्यनिरपेक्षपणे (–अन्य द्रव्यथी निरपेक्षपणे,
स्वद्रव्यमां ज) सिद्धि होवाथी, जीवने अजीवनुं कर्तापणुं
सिद्ध थतुं नथी. माटे जीव अकर्ता ठरे छे.
[–समयसार गुजराती बीजी आवृत्ति]