Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: २ : ‘आत्मधर्म’ २४८१ : कारतक :
• [१] •
प्रवचन पहेलुं
[वीर सं. २४८० भादरवा वद १२]
[] अलौकिक गाथा ने अलौकिक टीका
आ अलौकिक गाथाओ छे अने अमृतचंद्राचार्यदेवे टीका पण एवी ज अलौकिक करी छे. टीकामां
क्रमबद्धपर्यायनी वात करीने तो आचार्यदेवे जैनशासननो नियम अने जैनदर्शननुं रहस्य गोठवी दीधुं छे.
भगवान आत्मानो ज्ञायकस्वभाव छे, ते तो ज्ञाता–द्रष्टापणानुं ज कार्य करे छे. क्यांय फेरफार करे एवो तेनो
स्वभाव नथी, ने रागने पण फेरववानो तेनो स्वभाव नथी, रागनो पण ते ज्ञायक छे. जीव ने अजीव बधा
पदार्थोनी त्रणेकाळनी अवस्था क्रमबद्ध थाय छे, आत्मा तेनो ज्ञायक छे.–आवो ज्ञायक आत्मा ते सम्यग्दर्शननो
विषय छे.
[] जीव–अजीवनां क्रमबद्ध परिणाम अने आत्मानो ज्ञायकस्वभाव.
(टीका) जीवो हि तावत् क्रमनियमितात्मपरिणामै रुत्पद्यमानो जीव एव नाजीवः, एवमजीवोऽपि
क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानोऽजीव एव न जीवः,...”
आचार्यदेव कहे छे के “प्रथम तो” एटले के सौथी पहेला ए निर्णय करवो के जीव क्रमबद्ध–क्रमनियमित
एवा पोताना परिणामोथी ऊपजतो थको जीव ज छे, अजीव नथी; एवी रीते अजीव पण क्रमबद्ध पोताना
परिणामोथी ऊपजतुं थकुं अजीव ज छे, जीव नथी. जुओ आ महा सिद्धांत! जीव के अजीव दरेक वस्तुमां
क्रमबद्धपर्याय थाय छे, तेमां आडुंअवळुं थतुं ज नथी. अत्यारे घणा पंडितो अने त्यागी वगेरे लोकोमां आनी
सामे मोटो वांधो ऊठ्यो छे, केम के आ वातनो निर्णय करवा जाय तो पोतानुं अत्यार सुधी मानेलुं कांई रहेतुं
नथी. २००३ नी सालमां (प्रवचन–मंडपना उद्घाटन प्रसंगे) हुकमीचंदजी शेठनी साथे देवकीनंदनजी पंडित
आवेला, तेमने ज्यारे आ वात बतावी त्यारे ते आश्चर्य पाम्या हता के अहो! आवी वात छे!! आ वात
अत्यार सुधी अमारा लक्षमां नहोती आवी. छए द्रव्योमां तेनी त्रणेकाळनी दरेक पर्यायनो स्वकाळ नियमित छे.
जगतमां अनंत जीवो छे ने जीव करतां अनंतगुणा अजीव छे, ते बधाय द्रव्यो पोतपोताना क्रम नियमित
परिणामे ऊपजे छे. जे समये जे पर्यायनो क्रम छे ते एक समय पण आगळ पाछळ न थाय. १०० नंबरनी जे
पर्याय होय ते ९९मा नंबरे न थाय, तेमज १०० नंबरनी पर्याय १०१मा नंबरे पण न थाय. आ रीते दरेक
पर्यायनो स्वकाळ नियमित छे, ने बधांय द्रव्यो क्रमबद्धपर्याये परिणमे छे. पोताना स्वभावनो निर्णय थयो त्यां
धर्मी जाणे छे के हुं तो ज्ञायक छुं, हुं कोने फेरवुं? एटले धर्मीने परने फेरववानी बुद्धि नथी, रागने पण
फेरववानी बुद्धि नथी, ते रागनो पण ज्ञायकपणे ज रहे छे.
[] सर्वज्ञभगवान ‘ज्ञापक’ छे, ‘कारक’ नथी.
पहेला तो एम निर्णय करवो जोईए के आ जगतमां एवा सर्वज्ञभगवान छे के जेमने आत्मानो
ज्ञानस्वभाव पूर्ण खीली गयो छे, अने मारो आत्मा पण एवो ज ज्ञानस्वभावी छे. जगतना बधाय पदार्थो
क्रमबद्धपर्यायपणे परिणमे छे, पदार्थना त्रणकाळनी पर्यायनो क्रम निश्चित छे; सर्वज्ञदेवे त्रणकाळ त्रणलोकनी
पर्यायो जाणी छे. सर्वज्ञे जाण्युं ते फरे नहि.–छतां सर्वज्ञदेवे जाण्युं माटे तेवी अवस्था थाय छे–एम पण नथी.
सर्वज्ञभगवान तो ज्ञापकप्रमाण छे, ते कांई पदार्थोना कारक नथी; कारक–