Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४८१ ‘आत्मधर्म’ : ३ :
रूपे तो पदार्थ पोते ज छे, दरेक पदार्थ पोते ज पोताना छ कारकरूपे थईने परिणमे छे.
[] क्रमबद्धपर्यायना भणकार
आचार्यदेव पहेलेथी ज क्रमबद्धपर्यायना भणकार मूकता आव्या छे–
‘जीव पदार्थ केवो छे’ तेनुं वर्णन करतां बीजी गाथामां कह्युं हतुं के “क्रमरूप अने अक्रमरूप प्रवर्तता
अनेक भावो जेनो स्वभाव होवाथी जेणे गुण–पर्यायो अंगीकार कर्या छे.” पर्याय क्रमवर्ती होय छे अने गुण
सहवर्ती होय छे. एम कहीने त्यां जीवनी क्रमबद्धपर्यायनी वात बतावी दीधी छे.
त्यार पछी ६२मी गाथामां कह्युं के “वर्णादिक भावो, अनुक्रमे आविर्भाव अने तिरोभाव पामती एवी
ते ते व्यक्तिओ (अर्थात् पर्यायो) वडे पुद्गलद्रव्यनी साथे रहेता थका, पुद्गलनुं वर्णादि साथे तादात्म्य जाहेर
करे छे.” अहीं ‘अनुक्रमे आविर्भाव अने तिरोभाव’ पामवानुं कहीने अजीवनी क्रमबद्धपर्याय बतावी दीधी छे.
कर्ताकर्म अधिकारमां पण गा. ७६–७७–७८मां प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य एम त्रण प्रकारना कर्मनी
वात करीने क्रमबद्धपर्यायनी वात गोठवी दीधी छे. ‘प्राप्य’ एटले, द्रव्यमां जे समये जे पर्याय नियमित छे ते
क्रमबद्धपर्यायने ते समये ते द्रव्य प्राप्त करे छे–पहोंची वळे छे, तेथी तेने ‘प्राप्य कर्म’ कहेवाय छे.
[] ज्ञायक स्वभाव समजे तो ज क्रमबद्धपर्याय समजाय.
जुओ, आमां ज्ञायकस्वभाव तरफथी लेवानुं छे. ज्ञायक तरफथी ल्ये तो ज आ क्रमबद्धपर्यायनी वात
यथार्थ समजाय तेवी छे. जे जीव पात्र थईने पोताना आत्माने माटे समजवा मांगतो होय तेने आ वात यथार्थ
समजाय तेवी छे. बीजा धीठाईवाळा जीवो तो आ समज्या विना ऊंधुंं ल्ये छे ने ज्ञायकस्वभावना निर्णयनो
पुरुषार्थ छोडीने क्रमबद्धपर्यायना नामे पोताना स्वछंदने पोषे छे. जेने ज्ञाननी श्रद्धा नथी, केवळीनी प्रतीत
नथी, अंतरमां वैराग्य नथी, कषायनी मंदता पण नथी, स्वछंदता छूटी नथी ने क्रमबद्धपर्यायनुं नाम ल्ये छे–
एवा धीठा–स्वछंदी जीवनी अहीं वात नथी. आ क्रमबद्धपर्याय समजे तेने स्वछंद रहे ज नहि, ते तो ज्ञायक थई
जाय. भगवान! क्रमबद्धपर्याय समजावीने अमे तो तने तारा ज्ञायक आत्मानो निर्णय कराववा मांगीए छीए,
अने आत्मा परनो अकर्ता छे ए बताववा मांगीए छीए. जो तारा ज्ञायकस्वभावनो निर्णय न कर तो तुं
क्रमबद्धपर्यायने समज्यो ज नथी.
जीव ने अजीव बधा पदार्थोनी त्रणेकाळनी पर्यायो क्रमबद्ध छे,–ते बधाने जाण्युं कोणे?–सर्वज्ञदेवे.
“सर्वज्ञदेवे आम जाण्युं” एम सर्वज्ञतानो निर्णय कोणे कर्यो?–पोतानी ज्ञानपर्याये.
वर्तमान ज्ञानपर्याय अल्पज्ञ होवा छतां तेणे सर्वज्ञतानो निर्णय कोनी सामे जोईने कर्यो?–
ज्ञानस्वभावनी सामे जोईने ते निर्णय कर्यो छे.
आ रीते जे जीव पोताना ज्ञायकस्वभावना निर्णयनो पुरुषार्थ करे छे तेने ज क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय
थाय छे, अने ते जीव परनो ने रागनो अकर्ता थईने ज्ञायक–भावनो ज कर्ता थाय छे. आवा जीवने
ज्ञानस्वभावना निर्णयमां पुरुषार्थ, स्वकाळ वगेरे पांचे समवाय एक साथे आवी जाय छे.
[] आमां ज्ञायकस्वभावनो पुरुषार्थ छे तेथी आ नियतवाद नथी.
प्रश्न:– गोमट्टसारमां तो नियतवादीने मिथ्याद्रष्टि कह्यो छे ने?
उत्तर:– गोमट्टसारमां जे नियतवाद कह्यो छे ते तो स्वछंदीनो छे; जे जीव सर्वज्ञने मानतो नथी,
ज्ञानस्वभावनो निर्णय करतो नथी, अंतरमां वळीने समाधान कर्युं नथी, विपरीत भावोना उछाळा ओछा पण
कर्या नथी, ने ‘जेम थवानुं हशे तेम थशे’ एम कहीने मात्र स्वछंदी थाय छे अने मिथ्यात्वने पोषे छे एवा
जीवने गोमट्टसारमां गृहीत मिथ्याद्रष्टि कह्यो छे. परंतु ज्ञान स्वभावना निर्णयपूर्वक जो आ क्रमबद्धपर्यायने
समजे तो तो ज्ञायकस्वभाव तरफना पुरुषार्थ वडे मिथ्यात्व ने स्वछंद छूटी जाय.
[] भयनुं स्थान नहि पण भयना नाशनुं कारण.
प्रश्न:– क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय करवा जतां क्यांक स्वछंदी थई जवाशे–एवो भय छे, माटे एवा
भयस्थानमां शा माटे जवुं?