परने फेरवी दउं–एवी कर्ताबुद्धिथी स्वछंदी थई रह्यो छे; तेने बदले, पदार्थोनी पर्याय तेना पोताथी ज क्रमबद्ध
थाय छे, हुं तेनो कर्ता के फेरवनार नथी, हुं तो ज्ञायक छुं–एवी प्रतीत थतां स्वछंद छूटीने स्वतंत्रतानुं अपूर्व
भान थाय छे. आ क्रमबद्धपर्यायनी समजण ते भयनुं स्थान नथी, भय तो मूर्खाई अने अज्ञानमां होय, आ
तो भयना ने स्वछंदना नाशनुं कारण छे.
त्रिकाळ सत्, ने पर्याय ते एकेक समयनुं सत, ते सतनो आत्मा जाणनार छे, पण कोई परनो उत्पन्न करनार,
नाश करनार, के तेमां फेरफार करनार नथी. जो उत्पन्न करवानुं, नाश करवानुं के फेरफार करवानुं माने तो त्यां
ज्ञायकभावपणानी प्रतीत रहेती नथी. एटले ज्ञानस्वभावने जे नथी मानतो ने परमां फेरफार करवानुं माने छे
तेने ज्ञायकपणुं नथी रहेतुं पण मिथ्यात्व थई जाय छे.
मानो तो कांई वस्तु ज रहेती नथी. क्रमबद्धपर्यायपणुं ते तो वस्तुनुं स्वरूप छे तेने रोगचाळो कहेवो ए तो महा
विपरीतता छे. द्रव्य समये समये पोतानी क्रमबद्धपर्यायपणे ऊपजे छे एवो तेनो धर्म छे, क्रमबद्धपर्यायमां जे
समये जे पर्यायनो स्वकाळ छे ते समये द्रव्य ते ज पर्यायने द्रवे छे–प्रवहे छे एवो ज वस्तुभाव छे; ने पोतानो
ज्ञायक स्वभाव छे. आवा स्वभावने मानवो ते रोगचाळो नथी, परंतु आवा वस्तुस्वभावने न मानतां फेरफार
करवानुं मानवुं ते मिथ्यात्व छे ने मिथ्यात्व ते ज मोटो रोगचाळो छे.
प्रतीत पण जरूर आवी जाय छे.
पर्यायो तो ज्ञानमां पकडाती नथी एटले ते तो क्रमबद्ध थाय, परंतु बुद्धिपूर्वकनी पर्यायोमां क्रमबद्धपणुं लागु न
पडे, ते तो अक्रमे पण थाय.”–ए वात साची नथी. अबुद्धिपूर्वकनी के बुद्धिपूर्वकनी कोई पण पर्याय क्रमबद्ध ज
थाय छे. जड ने चेतन बधा द्रव्योनी बधी पर्यायो क्रमबद्ध ज थाय छे. वळी कोई एम कहे के ‘भूतकाळनी
पर्यायो तो थई गई एटले तेमां हवे कांई फेरफार न थई शके, परंतु भविष्यनी पर्यायो हजी थई नथी एटले
तेना क्रममां फेरफार करी शकाय.” आम कहेनारने पण पर्यायनो क्रम फेरववानी बुद्धि छे ते पर्यायबुद्धि छे.
आत्मा ज्ञायक छे एनी प्रतीत करवानी आ वात छे. ज्ञायकस्वभावनो निर्णय करे तो ‘में आनुं आम कर्युं ने
आनुं आम न थवा दीधुं’ एवी कर्ताबुद्धिनी बधी विपरीत मान्यताओनो भूक्को ऊडी जाय छे ने एकलुं
ज्ञायकपणुं रहे छे.
आवुं यथार्थ सत्य सत्समागमे सांभळीने जेणे जाण्युं पण नथी, तेने अंतरमां तेनी साची धारणा क्यांथी होय?
अने धारणा विना तेनी यथार्थ रुचि अने