Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४८१ ‘आत्मधर्म’ : ५ :
परिणमन तो क्यांथी थाय? अत्यारे आ वात बीजे सांभळवा पण मळती नथी. आ वात समजीने तेनो यथार्थ
निर्णय करवा जेवो छे.
[१२] क्रम अने ते पण निश्चित.
जीवो हि तावत्क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानो जीव एव, नाजीवः...” आ मूळ टीका छे, तेना
हिंदी अर्थमां जयचंद्रजी पंडिते एम लख्युं छे के ‘जीव प्रथम ही क्रमकर निश्चित अपने परिणामों कर उत्पन्न
हुआ जीव ही है, अजीव नहीं है’ क्रम तो खरो, अने ते पण नियमित, एटले के आ द्रव्यमां आ समये
आवी ज पर्याय थशे–ए पण निश्चित छे.
कोई एम कहे के ‘पर्याय क्रमबद्ध छे एटले के ते एक पछी एक क्रमसर थाय छे–ए खरुं, पण क्या समये
केवी पर्याय थशे ते निश्चित नथी’–तो ए वात साची नथी. क्रम अने ते पण निश्चित छे, क्या समयनी पर्याय
केवी थवानी छे ते पण निश्चित छे. जो एम न होय तो सर्वज्ञे जाण्युं शुं? अहो! आ क्रमबद्धपर्यायनी वात जेनी
प्रतीतमां आवे तेने ज्ञानस्वभावनी द्रष्टि थईने मिथ्यात्वनो ने अनंतानुबंधी कषायनो नाश थई जाय; तेने
स्वछंदता न थाय पण स्वतंत्रता थाय.
[१३] ज्ञानस्वभावनो पुरुषार्थ, अने तेमां एक साथे पांच समवाय.
अज्ञानीओ कहे छे के ‘आ क्रमबद्धपर्याय मानो तो पुरुषार्थ ऊडी जाय छे.’–पण एम नथी. आ
क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय करतां कर्ताबुद्धिनुं खोटुं अभिमान ऊडी जाय छे ने ज्ञायकपणानो साचो पुरुषार्थ थाय छे.
ज्ञान–स्वभावनो पुरुषार्थ न करे तेने क्रमबद्धपर्यायनोद निर्णय पण साचो नथी. ज्ञानस्वभावना पुरुषार्थ वडे
क्रमबद्ध–पर्यायनो निर्णय करीने पर्याय स्वसन्मुख थई त्यां एक समयमां ते पर्यायमां पांचे समवाय आवी जाय छे.
नाटक–समयसारमां पं. बनारसीदासजी पण कहे छे के–
टेक डारि एकमैं अनेक खोजै सौ सुबुद्धि,
खोजी जीवे वादी मरै सांची कहवति है।। ४५।।
दूराग्रह छोड़कर एकमें अनेक धर्म ढूँढ़ना सम्यग्ज्ञान है। इसलिये संसार में जो कहावत है कि
‘खोजी पावे वादी मरे’ सो सत्य है।।
पुरुषार्थ, स्वभाव, काळ, नियत अने कर्मनो अभाव ए पांचे समवाय एक समयनी पर्यायमां आवी जाय छे.
[१४] कार्तिकी–अनुप्रेक्षा अने गोमट्टसारना कथननी संधि.
स्वामी कार्तिकीअनुप्रेक्षामां गा. ३२१–२२–२३मां स्पष्ट कह्युं छे के जे समये जेम थवानुं सर्वज्ञदेवे जोयुं छे
ते समये तेम ज थवानुं, तेने फेरववा कोई समर्थ नथी.–जे आवुं श्रद्धान करे छे ते शुद्ध सम्यग्द्रष्टि छे, ने तेमां जे
शंका करे छे ते प्रगटपणे मिथ्याद्रष्टि छे, तेने सर्वज्ञनी श्रद्धा नथी.
जे जीव ज्ञानस्वभावनी श्रद्धा करतो नथी, ने क्रमबद्धपर्यायनुं फक्त नाम लईने स्वछंदथी विषय कषायने
पोषे छे तेने गोमट्टसारमां गृहीत मिथ्याद्रष्टि गण्यो छे; परंतु–ज्ञान स्वभावनी प्रतीत करीने जे जीव
क्रमबद्धपर्यायने माने छे ते जीवने कांई त्यां मिथ्याद्रष्टि नथी कह्यो.
[१प] एकवार...आ वात तो सांभळ!
अहो, आत्मानो ज्ञानस्वभाव–जेमां भव नथी, तेनो जेणे निर्णय कर्यो ते क्रमबद्धपर्यायनो ज्ञाता थयो,
तेने भेदज्ञान थयुं, तेणे केवळीने खरेखर मान्या. प्रभु! आवुं ज वस्तुस्वरूप छे ने आवो ज तारो ज्ञानस्वभाव
छे; एकवार आग्रह छोडीने, तारी पात्रता ने सज्जनता लावीने आ वात तो सांभळ!
[१६] रागनी रुचिवाळो क्रमबद्धपर्याय समज्यो नथी.
प्रश्न:– आप कहो छो के क्रमबद्धपर्याय थाय छे, तो पछी क्रमबद्धपर्यायमां राग पण थवानो होय ते थाय!
उत्तर:– भाई! तारी रुचि क्यां अटकी छे? तने ज्ञाननी रुचि छे के रागनी? जेने ज्ञानस्वभावनी रुचि
अने द्रष्टि थई छे ते तो पछी अस्थिरताना अल्प रागनो पण ज्ञाता ज छे. अने ‘राग थवानो हतो ते थयो’
एम कहीने जे रागनी रुचि छोडतो नथी–ते तो स्वछंदी मिथ्याद्रष्टि छे. आ क्रमबद्धपर्यायनुं स्वरूप समजे एनी
तो द्रष्टि पलटी जाय.
[१७] ऊंधो प्रश्न–‘निमित्त न आवे तो...?’
‘आवुं निमित्त आवे तो आम थाय, ने निमित्त न आवे तो न थाय’–आम जेने निमित्ताधीन द्रष्टि छे
तेने क्रमबद्धपर्यायनी खरी प्रतीत नथी. ‘क्रमबद्धपर्याय