: ६ : ‘आत्मधर्म’ २४८१ : कारतक :
थवानी होय पण निमित्त न आवे तो! ’ –ए प्रश्न ज ऊंधो छे. क्रमबद्धपर्यायमां जे समये जे निमित्त छे–ते पण
निश्चित ज छे; निमित्त न होय एम बनतुं ज नथी.
[१८] बे नवी वात!–समजे तेनुं कल्याण.
एक नियमसारनी ‘शुद्ध कारणपर्याय’नी वात, ने बीजी आ ‘क्रमबद्धपर्याय’नी वात, ए बे वात
सोनगढथी नवी काढी–एम केटलाक कहे छे; लोकोमां अत्यारे आ वात चालती नथी तेथी नवी लागे छे. शुद्ध
कारणपर्यायनी वात सूक्ष्म छे, ने बीजी आ क्रमबद्धपर्यायनी वात सूक्ष्म छे,–आ वात जेने बेसे तेनुं कल्याण थई
जाय! आ एक क्रमबद्धपर्यायनी वात बराबर समजे तो तेमां निश्चयव्यवहारना ने उपादान–निमित्तना वगेरे
बधाय खुलासा आवी जाय छे; वस्तुनी पर्याय क्रमबद्ध ने हुं तेनो ज्ञायक–ए समजतां बधा समाधान थई जाय
छे. भगवान! तारा ज्ञायकस्वभावने भूलीने तुं परनुं करवानी मान्यतामां रोकाई गयो? परमां तारी प्रभुता के
पुरुषार्थ नथी, आ ज्ञायक भावमां ज तारी प्रभुता छे. तारो प्रभु तारा ज्ञायक मंदिरमां बिराजमान छे तेनी
सन्मुख था, ने तेनी प्रतीत कर.
[१९] आत्मा अनादिथी ज्ञायकभावपणे ज रह्यो छे.
जगतमां एकेन्द्रियथी मांडीने पंचेन्द्रिय सुधीना दरेक जीव, तेमज सिद्ध, अने अनंतानंत परमाणुओमां
दरेक परमाणु, ते बधाय क्रमबद्धपणे परिणमी ज रह्या छे, हुं तेमनुं शुं फेरवुं? हुं तो ज्ञायक छुं–आवो निर्णय करे
तेने सम्यग्दर्शन थई जाय. आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे ते अनादि–अनंत जाणवानुं ज कार्य करे छे. आत्मा तो
अनादिनो ज्ञायकभाव पणे ज रह्यो छे, पण अज्ञानीने मोह वडे ते अन्यथा अध्यवसित थयो छे,–ए वात
प्रवचनसारनी २०० मी गाथामां करी छे. आत्मा तो ज्ञायक होवा छतां अज्ञानी तेनी प्रतीत नथी करतो, ने ‘हुं
परनो कर्ता’ एम मोह वडे अन्यथा माने छे.
[२०] कंथचित् क्रम–अक्रमपणुं कई रीते छे?
कोई एम कहे छे के–‘जीवनी पर्यायमां केटलीक क्रमबद्ध छे ने केटलीक अक्रमरूप छे; तेमज शरीरादि अजीवनी
पर्यायमां पण केटलीक क्रमबद्ध छे ने केटलीक अक्रमरूप छे.’–ते बधी वात वस्तुना द्रव्य–गुण–पर्यायथी विपरीत छे,
ज्ञानस्वभावथी विपरीत छे अने केवळीथी पण ते विपरीत छे. वस्तुमां एवुं क्रम–अक्रमपणुं नथी, परंतु पर्याय
अपेक्षाए क्रमबद्धपणुं; ने गुणो सहवर्ती छे ते अपेक्षाए अक्रमपणुं–ए रीते वस्तु क्रम–अक्रमस्वरूप छे.
[२१] केवळीने माने ते कुदेवने न माने.
कोई एम कहेतुं हतुं के–‘केवळीए जेम दीठुं तेम थयुं छे, माटे जे वाडो (–संप्रदाय) मळ्यो अने जेवा गुरु
मळ्या (–ते भले खोटा होय तो पण) तेमां फेरफार करवानी उतावळ न करवी, केम के कुदरतना नियममां एम
आव्युं छे माटे ते बदलवुं नहीं.’
–पण भाई तने केवळज्ञान बेठुं छे? अने कुदरतनो नियम एटले वस्तुस्वरूप तने बेठुं छे? जेनी
प्रतीतमां केवळज्ञान बेठुं अने वस्तुस्वरूप समजायुं तेना अंतरमां गृहीतमिथ्यात्व रहे ज नहि, कुधर्मने के
कुगुरुने माने एवो क्रम तेने होय ज नहि. माटे समकीति जीव कुधर्म–कुगुरुनो त्याग करे तेथी कांई तेने पर्यायनुं
क्रमबद्धपणुं तूटी जाय छे–एम नथी. सवळा पुरुषार्थमां निर्मळ क्रमबद्ध पर्याय थाय छे.
[२२] ज्ञायकस्वभाव.
जे द्रव्य जे गुणोथी ऊपजे–एटले के जे पर्यायपणे परिणमे तेनी साथे ते तन्मय छे. अहो! द्रव्य पोते ते
ते पर्याय साथे तन्मय थईने परिणम्युं छे, त्यां बीजो तेने शुं करे? आत्मा तो परम पारिणामिक स्वभावरूप
ज्ञायक छे, ज्ञायकभावपणे रहेवुं ए ज तेनो स्वभाव छे. आवा स्वभावनो निर्णय कर्यो त्यां स्वभाव तरफना
पुरुषार्थथी शुद्धपर्याय थती जाय छे.
[२३] “क्रमबद्ध न माने ते केवळीने नथी मानतो.”
‘बस! जेवुं निमित्त आवे तेवी पर्याय थाय, अमे क्रमबद्धने मानता नथी.’–एम कहेनार केवळी
भगवानने पण नथी मानतो, ने खरेखर आत्माने पण ते नथी मानतो. क्रमबद्धपर्यायनी ना कहेवी ते ज्ञान–
स्वभावनी ज ना कहेवा जेवुं छे. भाई! आ क्रमबद्धपर्याय ते कांई कोईना घरनी कल्पना नथी परंतु ते तो
वस्तुना घरनी वात छे, वस्तुनुं स्वरूप ज एवुं छे. कोई न माने तेथी कांई वस्तुनुं स्वरूप फरी जाय तेम नथी.
[२४] ज्ञानस्वभाव तरफ पुरुषार्थने वाळ्या वगर क्रमबद्धपर्याय समजाती नथी.
‘शुभ–अशुभ भाव पण क्रमबद्ध हता ते आव्या,’ एम कहीने जे जीव रागना पुरुषार्थमां ज अटकी रह्यो छे