: कारतक : २४८१ ‘आत्मधर्म’ : ७ :
ने ज्ञानस्वभाव तरफ पुरुषार्थने वाळतो नथी ते खरेखर क्रमबद्धपर्यायने समज्यो ज नथी, पण मात्र वातो करे छे.
ज्ञानस्वभावनो निर्णय करतां रागनी रुचि छूटी जाय छे अने त्यारे ज क्रमबद्धपर्यायनो साचो निर्णय थाय छे. भाई!
तुं कोनी सामे जोईने क्रमबद्धपर्याय माने छे? ज्ञायकस्वभाव सामे जोईने जेणे क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय कर्यो, ते
रागनो पण ज्ञाता ज थई गयो, आ राग पलटीने आ समये आवो ज राग लावुं–एम रागने फेरववानी बुद्धिमांथी
तेनुं वीर्य खसी गयुं ने ज्ञानस्वभाव तरफ वळी गयुं; तेने राग टळवानो क्रम चालु थई गयो छे, वर्तमान साधकदशा
थई छे, ने ए ज पुरुषार्थथी क्रम बद्धपर्यायना क्रममां अल्पकाळे केवळज्ञान पण आवशे, –तेनो पुरुषार्थ चालु छे.
ज्ञानीने क्रमबद्धपर्यायना निर्णयमां स्वभावनी द्रष्टिथी प्रयत्न चालु ज छे, ते ज्ञाननी अधिकतारूपे ज परिणमे छे
एटले के भूतार्थना आश्रये ज परिणमे छे, तेमां उतावळ पण नथी ने प्रमाद पण नथी. प्रवचनसारनी २०२ मी
गाथामां हेमराजजी पंडित कहे छे के–विभावपरिणति नहि छूटती देखीने सम्यग्द्रष्टि जीव आकुळ–व्याकुळ पण थतो
नथी तेमज समस्त विभाव परिणतिने टाळवानो पुरुषार्थ कर्या विना पण रहेतो नथी; भूतार्थ स्वभावनो आश्रय
करीने वर्ते छे तेमां तेने पुरुषार्थ चालु ज छे. एक साथे पांचे समवाय तेमां आवी जाय छे.
[२५] पोतपोताना अवसरोमां प्रकाशे छे...
प्रवचनसार गा. ९९ ‘सदवट्ठिदं सहावे दव्वं...’ ईत्यादिमां आचार्यदेवे क्रमबद्धपर्यायनो सिद्धांत
अलौकिक रीते मूकी दीधो छे. हारना मोतीना द्रष्टांते, द्रव्यना परिणामो पोतपोताना अवसरोमां प्रकाशे छे–ए
वात समजावीने क्रमबद्धपर्यायनुं स्वरूप एकदम खूल्लुं करी दीधुं छे. वळी एक ज समयमां उत्पाद–व्यय–धु्रव
होवा छतां, ते त्रणेनुं भिन्न भिन्न लक्षण छे, नाश एटले के व्यय ते नष्ट थता भावने आश्रित छे, उत्पाद
ऊपजता भावने आश्रित छे अने ध्रौव्य टकता भावने आश्रित छे.–ए रीते समये–समये उत्पाद–व्यय–धु्रव
कहीने तेमां पण क्रमबद्धपर्यायनी ज सांकळ गोठवी दीधी छे. (जुओ गाथा १०१)
[२६] ‘सत्’ अने तेने जाणनार ज्ञानस्वभाव.
अहो! आचार्य भगवंतोए जंगलमां वसीने, पोताना ज्ञानमां वस्तुस्वरूपने पकडीने आबेहूब वर्णन
कर्युं छे. एक तरफ आखुं सत्नुं चोसलुं जगतमां पड्युं छे ने आ तरफ तेने जाणनारो ज्ञानस्वभाव छे. महासत्ता
सत्, अवांतरसत्ता सत्, जडचेतन दरेक द्रव्य त्रिकाळ सत् ने तेनी एकेके समयनी पर्याय पण क्रमबद्ध प्रवाहमां
तेना स्वकाळे सत्, ए बधाने जाणनारी ज्ञानपर्याय पण सत्.–आम बधुं क्रमबद्ध अने व्यवस्थित सत् छे. तेनो
निर्णय कर्यो त्यां पोताने ज्ञातापणुं ज रह्युं ने कर्तापणानी मिथ्याबुद्धि मटी. सतनो ज्ञाता न रहेतां ते सत्ने
फेरववा मांगे ते मिथ्याबुद्धि छे.
[२७] ज्ञानस्वभावना निर्णयमां पांचे समवाय आवी जाय छे.
बधी पर्यायो तो क्रमबद्ध ज छे पण तेनो निर्णय कोण करे छे? ज्ञातानुं ज्ञान ज तेनो निर्णय करे छे. जे
ज्ञाने आवो निर्णय कर्यो ते ज्ञाने पोतानो (ज्ञानस्वभावनो) निर्णय पण भेगो ज कर्यो छे. ज्यां
स्वभावसन्मुख थईने आवो निर्णय कर्यो त्यां–
(१) स्वभाव तरफनो सम्यक् ‘पुरुषार्थ’ आव्यो,
(२) जे शुद्धता प्रगटी छे ते स्वभावमांथी प्रगटी छे, तेथी ‘स्वभाव’ पण आव्यो,
(३) ते समये जे निर्मळपर्याय प्रगटवानी हती ते ज प्रगटी छे तेथी ‘नियत’ पण आव्युं,
(४) जे निर्मळदशा प्रगटी छे ते ज ते वखतनो स्वकाळ छे, ए रीते ‘स्वकाळ’ पण आवी गयो,
(५) ते वखते निमित्तरूप कर्मना उपशमादि स्वयं वर्ते छे, ए रीते ‘कर्म’ पण अभावरूप निमित्त तरीके
आवी गयुं;
–उपर प्रमाणे स्वभावसन्मुख पुरुषार्थमां पांचे समवाय एक साथे आवी जाय छे.
[२८] उदीरणा–संक्रमण वगेरेमां पण क्रमबद्ध–पर्यायनो नियम.
कर्मनी उपशम, उदीरणा, संक्रमण वगेरे अवस्थाओनुं शास्त्रमां वर्णन आवे छे ते बधी अवस्था पण
क्रमबद्ध ज छे. शुभभावथी जीवे असाताप्रकृतिनुं सातारूपे संक्रमण कर्युं–एम कथन आवे, परंतु त्यां, कर्मनी ते
अवस्था थवानी न हती ने जीवे करी–एम नथी, पण तेवी अवस्था थवा वखते जीवना तेवा परिणाम निमित्त
होय छे–एम जणाव्युं छे. बधे ठेकाणे एक ज