: ८ : ‘आत्मधर्म’ २४८१ : कारतक :
अबाधित नियम छे के पदार्थोनी अवस्था क्रमबद्ध छे ने ने आत्मा ज्ञायक छे, फेरफार करनार नथी. जीवे
शुभभाव कर्या अने कर्ममां असाता पलटीने साता थई, त्यां ते कर्मनी अवस्थामां फेरफार तो थयो छे, परंतु
तेथी कांई तेनी अवस्थानो क्रम तूटयो नथी, तेमज जीवे शुभभाव करीने ते अजीवमां फेरफार कर्यो एम पण
नथी; असाता पलटीने साता थई त्यां एवो ज ते अजीवनी अवस्थानो क्रम हतो.
[२९] द्रव्य सत्, पर्याय पण सत्.
जीव बधुं छोडीने चाल्यो गयो–एम लोको कहे छे, पण त्यां कंई जीवपणुं तेणे छोड्युं छे? जीव जीवपणे
रहीने बीजे गयो छे ने! जेम जीव जीवपणे सत् रह्यो छे तेम जीवनी एकेक समयनी पर्याय पण ते ते समयनुं
सत् छे, ते पलटीने बीजा समयनी पर्यायपणे थई जती नथी.
[३०] ज्ञायकना निर्णय विना बधुं भणतर ऊंधुं छे.
हुं ज्ञान छुं–ज्ञायक छुं एम न मानतां परमां फेरफार करवानुं माने छे ते बुद्धि ज मिथ्या छे. भाई!
आत्मा ज्ञान छे–ए वातना निर्णय विना तारुं बधुं भणतर ऊंधुंं छे, तारा तर्क अने न्याय पण ऊंधा छे.
ज्ञानस्वभावनी गम पड्या वगर आगम पण अनर्थकारक थई पडे छे. शास्त्रमां निमित्तथी कथन आवे त्यां
अज्ञानी पोतानी ऊंधी द्रष्टि प्रमाणे तेनो आशय लईने उलटो मिथ्यात्वने पोषे छे.
[३१] “हुं तो ज्ञायक छुं.”
बधाय जीवोनी पर्याय क्रमबद्ध छे तो हुं कोने फेरवुं? बधाय अजीवनी पर्याय पण क्रमबद्ध छे तो हुं कोने
फेरवुं?–हुं तो ज्ञायक छुं, ज्ञायकपणुं ज मारो परम स्वभाव छे. हुं ज्ञाता ज छुं, कोईनो फेरवनार नथी. कोईनुं
दुःख मटाडी दउं के सुख करी दउं ए वात मारामां नथी–आम पोताना ज्ञायक आत्मानो निर्णय करवो ते
सम्यग्दर्शन छे.
[३२] बधुं फेरवीने आ वात समजवी पडशे.
सोलापुरमां अधिवेशन वखते विद्वत् परिषदे आ क्रमबद्धपर्याय संबंधमां चर्चा उपाडी हती, पण तेनो
कांई निर्णय बहार न आव्यो, एम ने एम भीनुं संकेली लीधुं; केमके जो आ वातनो निर्णय करवा जाय तो,
निमित्तने लीधे क्यांय फेरफार थाय–ए वात रहेती नथी ने अत्यार सुधी घूंटेलुं बधुं फेरववुं पडे छे. पण ते बधुं
फेरवीने, क्रमबद्धपर्याय जे रीते कहेवाय छे तेनो निर्णय कर्या वगर कोई रीते श्रद्धा–ज्ञान साचां थाय तेम नथी.
[३३] क्रमबद्ध परिणमता ज्ञायकनुं अकर्तापणुं.
आत्मा ज्ञानस्वभावी वस्तु छे, ज्ञान तेनो परमस्वभाव छे, ने ज्ञान साथे श्रद्धा, चारित्र, आनंद, वीर्य
वगेरे अनंत गुणो रहेला छे. द्रव्य परिणमतां ते बधा गुणोनुं क्रमसर परिणमन थाय छे.
आत्मा ज्ञायक छे एटले तेनो स्वभाव स्व–परने जाणवानो छे; परने करे के राग वडे परनुं कारण थाय
एवो तेनो स्वभाव नथी, तेमज पर तेनुं कांई करे के पोते परने कारण बनावे–एवो पण स्वभाव नथी; आ
रीते अकारणकार्यस्वभाव छे.
अहीं सर्वविशुद्धज्ञान–अधिकारमां आ क्रमबद्धपर्यायनी वात लईने आचार्यदेवे जीवनुं अकर्तापणुं सिद्ध कर्युं
छे, एटले के जीव ज्ञायक ज छे–एम समजाव्युं छे. ज्ञानस्वभावी जीव छे तेना अनंत गुणोनी समय समयनी
पर्यायो क्रमबद्ध ज ऊपजे छे अने ते जीवनी साथे एकमेक छे. त्रणकाळनी दरेक पर्याय पोताना स्वकाळे ज ऊपजे
छे, कोई पण पर्याय आडीअवळी ऊपजती नथी.
[३४] पुरुषार्थनो मोटो प्रश्न.
आमां मोटो प्रश्न छे के ‘तो पछी पुरुषार्थ क्यां रह्यो?’
तेनुं समाधान:– आ निर्णय कर्यो त्यां एकलुं ज्ञातापणुं ज रह्युं, एटले परमां फेरफार करवानी बुद्धिथी
खसीने पुरुषार्थनुं जोर स्वभाव तरफ वळी गयुं. आ रीते ज्ञान साथे वीर्यगुण (पुरुषार्थ) पण भेगो ज छे.
ज्ञाननी क्रमबद्धपर्याय साथे स्वभाव तरफनो पुरुषार्थ पण भेगो ज वर्ते छे, क्रमबद्धपर्यायमां पुरुषार्थ कांई जुदो
नथी रही जतो. क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय करीने ज्ञान स्व–तरफ वळ्युं त्यां तेनी साथे वीर्य, सुख, श्रद्धा, चारित्र,
अस्तित्व वगेरे अनंता गुणो एक साथे ज परिणमे छे, माटे आमां पुरुषार्थ पण भेगो ज छे.
[३५] ‘ज्ञायक’ अने ‘कारक’.
अनादि अनंत काळमां कया समये क्या द्रव्यनी केवी पर्याय छे–ते सर्वज्ञदेवे वर्तमानमां प्रत्यक्ष जाणी
लीधुं छे; परंतु–सर्वज्ञदेवे जाण्युं माटे ते द्रव्यो तेवी क्रमबद्ध–