Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४८१ ‘आत्मधर्म’ : ९ :
पर्याये परिणमे छे–एम नथी. पण ते ते समयनी निश्चित क्रमबद्धपर्यायपणे परिणमवानो द्रव्योनो ज स्वभाव
छे. सर्वज्ञनुं केवळज्ञान ते तो ‘ज्ञापक’ छे एटले के जणावनार छे, ते कांई पदार्थोनुं कारक नथी. छए द्रव्यो ज
स्वयं पोतपोताना छ कारकपणे परिणमे छे.
• [२] •
प्रवचन बीजाुं
[वीर सं. २४८० भादरवा वद १३]
पर्याय क्रमबद्ध होवा छतां शुद्धस्वभावना पुरुषार्थ विना शुद्धपर्याय कदी थती नथी. ज्ञान–
स्वभावनी प्रतीतनो अपूर्व पुरुषार्थ करे तेने ज सम्यग्दर्शनादि निर्मळ पर्याय क्रमबद्ध थाय छे.
[३६] जेनो पुरुषार्थ ज्ञायक तरफ वळ्‌यो तेने ज क्रमबद्धनी श्रद्धा थई.
‘अहो! हुं ज्ञायक छुं, ज्ञान ज मारो परम स्वभाव छे, एवा निर्णयनो अंतरमां प्रयत्न करे तेने एम
नक्की थई जाय के वस्तुनो आवो ज स्वभाव छे ने सर्वज्ञदेवे केवळज्ञानथी आम ज जाण्युं छे. जे जीवे पोताना
ज्ञानमां आवो निर्णय कर्यो तेने सर्वज्ञथी विरुद्ध कहेनारा (एटले के निमित्तने लीधे कांई फेरफार थाय के रागथी
धर्म थाय एवुं मनावनारा) कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रनी मान्यता छूटी गई छे, ज्ञानस्वभाव तरफ तेनो पुरुषार्थ
वळ्‌यो छे अने तेने ज सर्वज्ञदेवनी तथा क्रमबद्धपर्यायनी यथार्थ श्रद्धा थई छे.
[३७] सर्वज्ञदेवने नहि माननार.
कोई एम कहे के ‘सर्वज्ञदेव भविष्यनी पर्यायने अत्यारे नथी जाणता, परंतु ज्यारे ते पर्याय थशे त्यारे
सर्वज्ञदेव तेने जाणशे!’–तो आम कहेनारने सर्वज्ञनी श्रद्धा पण न रही. भाई रे! भविष्यना परिणाम थशे
त्यारे सर्वज्ञदेव जाणशे–एम नथी, सर्वज्ञदेवने तो पहेलेथी ज त्रणकाळ त्रणलोकनुं ज्ञान वर्ते छे. तारे ज्ञायकपणे
नथी रहेवुं पण निमित्त वडे क्रम फेरववो छे–ए द्रष्टि ज तारी ऊंधी छे. ज्ञानस्वभावनी द्रष्टि करतां पर्यायनो
निर्मळ क्रम शरू थई जाय छे.
जीव–अजीवना बधा परिणामो क्रमबद्ध जेम छे तेम सर्वज्ञदेवे जाण्या छे अने सूत्रमां पण तेम ज
जणाव्या छे; तेथी आचार्यदेवे गाथामां कह्युं के “जीवस्साजीवस्स दुजे परिणाम दु देसिया सुत्ते........”
जीवअजीवना क्रमबद्धपरिणाम जेम छे तेम सर्वज्ञदेव तेना जाणनार छे, पण तेना कारक नथी.
[३८] आत्मानुं ज्ञायकपणुं न माने ते केवळी वगेरेने पण मानतो नथी.
समये समये पोताना क्रमबद्ध परिणामपणे जीव ऊपजे छे; जीवमां अनंतगुणो होवाथी एक समयमां ते
अनंत–गुणोना अनंत परिणामो थाय छे; तेमां दरेक गुणना परिणाम समये समये नियमित क्रमबद्ध ज थाय
छे. आवा वस्तुस्वभावनो निर्णय करतां ज्ञान स्वसन्मुख थईने अकर्तापणे–साक्षीभावे परिणम्युं; त्यां,
साधकदशा होवाथी हजी अस्थिरतानो राग पण थाय छे परंतु ज्ञान तो तेनुंय साक्षी छे. स्व–परप्रकाशक ज्ञान
खील्युं तेनी क्रमबद्ध पर्याय एवी ज छे के ते समये ज्ञायकने जाणतां तेवा रागने पण जाणे. आवुं ज्ञायकपणुं जे
न माने ने पर्यायना क्रममां फेरफार करवानुं माने तो ते जीव आत्माना ज्ञानस्वभावने मानतो नथी,
केवळीभगवानने पण ते नथी मानतो, केवळीभगवाने कहेलां शास्त्रोने पण ते नथी मानतो अने केवळज्ञानना
साधक गुरु केवा होय तेने पण ते जाणतो नथी. क्रमबद्धपर्यायनी प्रतीत करीने जेणे पोताना ज्ञानस्वभावने
प्रतीतमां लीधो तेने सम्यग्दर्शनादि थया छे, अने तेणे ज खरेखर केवळीभगवानने, केवळीना शास्त्रोने तथा
गुरुने मान्या छे.