Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: १० : ‘आत्मधर्म’ २४८१ : कारतक :
[३९] पर्याय क्रमबद्ध होवा छतां, पुरुषार्थवाळाने ज सम्यग्दर्शनादि निर्मळपर्याय थाय छे.
जुओ, आमां आत्माना ज्ञायक स्वभावना पुरुषार्थनी वात छे. ‘क्रमबद्धपर्याय’नो एवो अर्थ नथी के
जीव गमे तेवा कुधर्मने मानतो होय छतां तेने सम्यग्दर्शन थई जाय! अथवा गमे तेवा तीव्र विषयकषायोमां
वर्ततो होय के एकेन्द्रियादि पर्यायमां वर्ततो होय छतां तेने पण क्रमबद्धपणे ते पर्यायमां सम्यग्दर्शनादि थई
जाय–एम कदी बनतुं नथी. जे कुधर्मने माने छे, तीव्र विषयकषायमां वर्ते छे, के एकेन्द्रियादिमां पड्या छे, तेने
क्यां पोताना ज्ञानस्वभावनी के क्रमबद्धपर्यायनी खबर छे? पर्याय क्रमबद्ध होवा छतां शुद्धस्वभावना पुरुषार्थ
विना शुद्धपर्याय कदी थती नथी. ज्ञानस्वभावनी प्रतीतनो अपूर्व पुरुषार्थ करे तेने ज सम्यग्दर्शनादि निर्मळ
पर्याय क्रमबद्ध थाय छे, अने जे तेवो पुरुषार्थ नथी करतो तेने क्रमबद्ध मलिन पर्याय थाय छे. पुरुषार्थ वगर ज
अमने सम्यग्दर्शनादि निर्मळ दशा थई जशे एम कोई माने तो ते क्रमबद्धपर्यायनुं रहस्य समज्यो ज नथी. जे
जीव कुदेवने माने छे, कुगुरुने माने छे, कुधर्मने माने छे, स्वछंदपणे तीव्र कषायोमां वर्ते छे–एवा जीवने
क्रमबद्धपर्यायनी श्रद्धा ज थई नथी. भाई! तारा ज्ञानस्वभावना पुरुषार्थ वगर ते क्रमबद्धपर्यायने क्यांथी
जाणी? ज्यां सुधी कुदेव–कुधर्म वगेरेने माने त्यां सुधी तेनी क्रमबद्धपर्यायमां सम्यग्दर्शननी लायकात थई जाय
एम बने नहि. सम्यग्दर्शननी लायकातवाळा जीवने तेनी साथे ज्ञाननो विकास, स्वभावनो पुरुषार्थ वगेरे पण
योग्य ज होय छे, एकेन्द्रियपणुं वगेरे पर्यायमां ते प्रकारना ज्ञान, पुरुषार्थ वगेरे होतां नथी, एवो ज ते जीवनी
पर्यायनो क्रम छे. अहीं तो ए वात छे के पुरुषार्थ वडे जेणे ज्ञानस्वभावनी प्रतीत करी तेने सम्यग्दर्शन थयुं,
एटले परनो तेमज रागादिनो ते अकर्ता थयो, अने तेणे ज क्रमबद्धपर्यायने खरेखर जाणी छे. हजी तो कुदेव
अने सुदेवनो निर्णय करवानी पण जेना ज्ञानमां ताकात नथी ते जीवमां ज्ञायकस्वभावनो ने अनंत गुणोनी
क्रमबद्ध पर्यायनो निर्णय करवानी ताकात तो क्यांथी होय? ने यथार्थ निर्णय वगर क्रमबद्धपर्यायमां शुद्धता
थाय–एम बनतुं नथी.
[४०] ‘अनियतनय’ के ‘अकाळनय’ साथे क्रमबद्धपर्यायने विरोध नथी.
प्रवचनसारना परिशिष्टना ४७ नयोमां २७ मा अनियतनयथी आत्माने ‘अनियत’ कह्यो छे, परंतु
अनियत एटले अक्रमबद्ध एवो तेनो अर्थ नथी. त्यां पाणीनी उष्णतानो दाखलो आपीने समजाव्युं छे के जेम
उष्णता ते पाणीनो कायमी स्वभाव नथी पण उपाधिभाव छे, ते कायमी स्वभाव नथी माटे अनियमित छे, तेम
विकार आत्मानो कायमी स्वभाव नथी पण उपाधिभाव छे, तेथी ते विकार अपेक्षाए आत्माने अनियत कह्यो
छे. ए ज प्रमाणे ३१मा बोलमां त्यां “अकाळनय” कह्यो छे, तेमां पण आ क्रमबद्धपर्यायना नियमथी कांई
विरुद्ध वात नथी, कांई क्रमबद्धपर्याय तोडीने ते वात नथी. (आ अनियतनय तथा अकाळनय बाबत विशेष
समजण माटे आत्मधर्ममां प्रसिद्ध थतां पू. गुरुदेवनां प्रवचनो वांचो.)
[४१] जैनदर्शननी मूळवस्तुनो निर्णय.
मूळ वस्तुस्वभाव शुं छे तेनो पहेला बराबर निर्णय करवो जोईए. आत्मानो ज्ञाता–द्रष्टा स्वभाव शुं?
अने ज्ञेय पदार्थोनो क्रमबद्ध स्वभाव शुं? तेना निर्णयमां विश्वदर्शनरूप जैनदर्शननो निर्णय आवी जाय छे; पण
अज्ञानीने तेनो निर्णय नथी.
जुओ, आ मूळवस्तु छे, तेनो पहेला निर्णय करवो जोईए, आ मूळवस्तुना निर्णय वगर धर्म थाय तेम
नथी. जेम कोई माणस बीजा पासे पांचहजार रूा. नी उघराणीए जाय, त्यां सामो माणस तेने लाडवा जमाडे,
पण आ तो कहे के भाई! जमवानी वात पछी, पहेला मुदनी वात नक्की करो, एटले के हुं पांच हजार रूा. लेवा
आव्यो छुं, तेनी पहेला सगवड करो–ए रीते त्यां पण मुदनी वातने मुख्य करे छे; तेम अहीं मुदनी रकम ए छे
के आत्मा ज्ञानस्वभाव छे तेनो निर्णय करवो. आत्मा ज्ञायकस्वभाव छे ने पदार्थोनी पर्यायनो क्रमबद्धस्वभाव
छे एनो जे निर्णय करतो नथी, ने ‘आवुं निमित्त जोईए ने आवो व्यवहार जोईए’ एम व्यवहारनी रुचिमां
रोकाई जाय छे तेने जरा पण हित थतुं नथी. अहो! हुं ज्ञायक छुं–ए मूळ वात जेने प्रतीतमां आवी तेने
क्रमबद्धपर्याय बेठा वगर रहे नहि; अने ज्यां आ वात बेठी त्यां बधा खुलासा थई जाय छे.